मधुमय स्वप्न रंगीले बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

मधुमय स्वप्न रंगीले

बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' | अद्भुत रस | आधुनिक काल

बन-बनकर मिट गए अनेकों मेरे मधुमय स्वप्न रंगीले
भर-भरकर फिर-फिर सूखे हैं मेरे लोचन गीले-गीले।

मेरा क्या कौशल, क्या मेरी चंचल तूली, क्या मेरे रंग
क्या मेरी कल्पना हंसिनी, मेरी क्या रस रासरति उमंग
मैं कब का रंग-रूप चितेरा, मैं कब विचर सका खग-कुल संग
मन-स्वप्नों के चित्र स्वयं ही बने स्वयं ही मिटे हठीले
भर-भरकर फिर-फिर सूखे हैं ये मेरे रंग-पात्र रंगीले।

कलाकार कब का मैं प्रियतम, कब मैंने तूलिका चलाई
मैंने कब यत्नत: कला के मंदिर में वर्तिका जलाई
यों ही कभी काँप उठ्ठी है मेरी अंगुली और कलाई
यों ही कभी हुए हैं कुछ-कुछ रसमय कुछ पाहन अरसीले!
बन-बनकर मिट गए अनेकों मेरे मधुमय स्वप्न रंगीले!

मैंने कब सजीवता फूँकी जग के कठिन शैल पाहन में
मैं कर पाया प्राणस्फुरण कब अपने अभिव्यंजन वाहन में
मुझे कब मिले सुंदर मुक्ता भावार्णव के अवगाहन में
यदा-कदा है मिले मुझे तो तुम जैसे कुछ अतिथि लजीले!
यों ही बन-बनकर बिगड़े हैं मेरे मधुमय स्वप्न रंगीले।

मेरे स्वप्न विलीन हुए हैं किंतु शेष है परछाई-सी
मिटने को तो मिटे किंतु वे छोड़ गए हैं इक झाईं-सी
उस झिलमिल की स्मृति-रेखा से हैं वे आँखे अकुलाई-सी
उसी रेख से बन उठते हैं फिर-फिर नवल चित्र चमकीले
बन-बनकर मिट गए अनेकों मेरे सपने गीले-गीले!

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