कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4 रामधारी सिंह 'दिनकर'
कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4
रामधारी सिंह 'दिनकर' | वीर रस | आधुनिक कालजिनकी भुजाओं की शिराएँ फडकी ही नहीं,
जिनके लहु में नहीं वेग है अनल का।
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का।
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका।
जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का।
उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या,
करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है।
करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे,
ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है?
सहता प्रहार कोई विवश कदर्य जीव,
जिसके नसों में नहीं पौरुष की धार है।
करुणा, क्षमा है क्लीब जाति के कलंक घोर,
क्षमता क्षमा की शूर वीरों का सृंगार है।
प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त,
प्रतिशोध-हीनता नरो में महपाप है।
छोड़ प्रतिवैर पीते मूक अपमान वे ही,
जिनमें न शेष शूरता का वह्नि-ताप है।
चोट खा सहिष्णु व' रहेगा किस भाँति, तीर
जिसके निषग में, करों में धृड चाप है।
जेता के विभूषण सहिष्णुता, क्षमा है पर,
हारी हुई जाति की सहिष्णुताSभिशाप है।
सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो,
उठता कराल हो फणीश फुफकर है।
सुनता गजेंद्र की चिंघार जो वनों में कहीं,
भरता गुहा में ही मृगेंद्र हुहुकार है।
शूल चुभते हैं, छूते आग है जलाती, भू को
लीलने को देखो गर्जमान पारावार है।
जग में प्रदीप्त है इसी का तेज, प्रतिशोध
जड़-चेतनों का जन्मसिद्ध अधिकार है।
सेना साज हीन है परस्व-हरने की वृत्ति,
लोभ की लड़ाई क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है।
वासना-विषय से नहीं पुण्य-उद्भूत होता,
वाणिज के हाथ की कृपाण ही अशुद्ध है।
चोट खा परन्तु जब सिंह उठता है जाग,
उठता कराल प्रतिशोध हो प्रबुद्ध है।
पुण्य खिलता है चंद्र-हास की विभा में तब,
पौरुष की जागृति कहाती धर्म-युद्ध है।
धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरंत,
कोई क्यों प्रचंड वेग वायु को बुलाता है?
फूटेंगे कराल ज्वालामुखियों के कंठ, ध्रुव
आनन पर बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है?
फूँक से जलाएगी अवश्य जगति को ब्याल,
कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है?
विद्युत खगोल से अवश्य ही गिरेगी, कोई
दीप्त अभिमान पे क्यों ठोकर लगाता है?
युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वजधारी या कि
वह जो अनीति भाल पै दे पाँव चलता?
वह जो दबा है शोषणो के भीम शैल से या
वह जो खड़ा है मग्न हँसता-मचलता?
वह जो बनाके शांति-व्यूह सुख लूटता या
वह जो अशांत हो क्षुदानल में जलता?
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता?
या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन कि भ्रांति है।
शोषणो के श्रंखला के हेतु बनती जो शांति,
युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशांति है।
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व का है,
ईश के अवज्ञा घोर, पौरुष कि श्रान्ति है।
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
ऐसी श्रंखला में धर्म विप्लव है, क्रांति है।
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