अभी तो सत्तर साल ही हुआ है
आज़ादी के
सत्तर सालों बाद भी
कपकपाती ठण्ड में
फुटपाथ पे लेटा
जब कोई बच्चा
ठिठुरता है
तो यकीन मानो
वो बच्चा नहीं
हमारा संविधान ठिठुरता है
जब किसी गाँव में
गाय के नाम पे
कोई अख़लाक़,
कोई सुबोध मारा जाता है
तो उसका परिवार नहीं
हमारा संस्कार बिलखता है
किसी भीड़ की उन्माद के लिए
कहीं कोई बस्ती,कहीं कोई घर
जब जलाया जाता है
नदियों,नालों,कुओं,पहाड़ों,पर्वतों को
दंगों का व्याकरण पढ़ाया जाता है
तो केवल ढाँचा ही नहीं
संसद का गलियारा भी हिलता है
जब सबकी आँखों के आगे
कोई बच्ची रौंदी जाती है
जिरह पे जिरह करके
सालों उसकी अस्मिता घसीटी जाती है
तो केवल उसका ही विश्वास नहीं
बल्कि न्यायपालिका का अस्तित्व भी हिलता है
सत्तर सालों में
हमें क्या हासिल करना था
और
हमने क्या हासिल किया है
यह प्रश्न
दंगों में,
मुठभेड़ों में,
बलात्कारों में,
कचहरी की तारीखों में,
जेल की दीवारों में,
आतंकवाद की चपेटों में,
नक्सलवाद की थपेड़ों में,
जात-पात की फसादों में,
धर्म के विवादों में,
राजनीति की कवायदों में
मारे गए
हर उस इंसान से
पूछा जाना चाहिए
जिसका लिए यह देश
उसका भी देश था
जिसे विश्वास था
उसके परिजनों को न्याय मिलेगा
तो ही
राम राज्य का स्वप्न खिलेगा
पर
क्या ऐसा संभव हुआ है
और कहने वाले कहते हैं
अभी तो सत्तर साल ही हुआ है।।