वो मेरा आखिरी दिन RATNA PANDEY
वो मेरा आखिरी दिन
RATNA PANDEYआज सुबह से ही आँख मेरी फड़फड़ा रही थी,
किसी अशुभ घटना के संकेत दिखा रही थी,
मुझे सामने पड़ी मेरी सन्दूक दिखाई दे रही थी,
कानों में खुसुर फुसुर की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी,
मन में कई शंकाएँ उत्पन्न हो रही थीं,
क्या हो रहा है समझ नहीं पा रही थी,
डरते क्यों हो उठाओ ना,
ऐसी बुदबुदाहट कानों में मेरे आई।
मैं स्वयं उठी और पूछ लिया क्या हो गया भाई,
तभी कानों में मेरे आवाज़ यह आई,
माँ उठो बाहर जाना है, मैं ख़ुशी से गदगदाई,
पूछ बैठी, क्या बेटा घूमने जाने की बारी है आई,
किंतु कुछ जवाब नहीं पाई, तो दिमाग में मेरे चिंता समाई,
मैं अपने घर को निहार रही थी,
हर कमरे में बार-बार जा रही थी,
समझ गई थी मामला गंभीर लग रहा है।
और मेरा घर अब मुझे पराया सा लग रहा है,
देख लूँ जी भर कर फिर कभी शायद देख ही ना पाऊँ,
कहीं मैं भाग रही थी पीछे-पीछे खाना लेकर,
कभी लोरी गाकर सुला रही थी, कभी पढ़ा रही थी,
कभी अच्छी बातें सिखा रही थी,
बीते लम्हें पल भर में दृष्टिगोचर हो गए,
पाँव भारी हो गए, चलना मुश्किल हो रहा था,
हर कदम पर दिल मेरा रो रहा था।
हर कमरे में आँसू मेरे गिर रहे थे,
घर भी उदास सा दिख रहा था,
मानो सब समझ गया हो,
किंतु बेटे बहू के चेहरे शून्य से लग रहे थे,
उनके चेहरे पर एक अजीब सी बेचैनी,
एक ग्लानि दिख रही थी,
मुझे सारी बात समझ में आई।
मैं उनके पास जाकर बोली,
चलो बेटा अब शुरु हो गई जुदाई,
बात मेरी सुन, वह तुरंत उठ खड़े हुए,
सन्दूक लेकर मेरी बाहर निकल पड़े,
छोड़कर मुझे बोले, माँ अभी आते हैं,
उसके बाद उनकी हिम्मत ही नहीं हुई,
मुझसे नज़रें मिलाने की,
मैं घर के आँगन से थोड़ी सी मिट्टी उठा लाई थी,
पलंग के नीचे उस मिट्टी को बिछाई।
कुछ फोटो भी मैं साथ में लाई,
पलंग के सामने उन्हें भी सजाई,
और अपना घर समझ उस जगह को मैंने अपनाई,
आँखों से बरसते आँसू मुझे हर रोज़
अपना आखिरी दिन याद दिलाते हैं,
दुनियादारी क्यों नहीं सीखी, यह सबक याद दिलाते हैं,
काश मैंने भी दुनियादारी सीख ली होती।
अपने घर को सिर्फ़ मेरा घर ही समझ रही होती,
तो शायद आज यह नौबत ही ना होती,
और घर से बाहर निकालने की किसी की जुर्रत ही ना होती,
नहीं पता था प्यार और दुलार का अंजाम यह होगा,
भविष्य मेरा इस तरह बर्बाद होगा,
घर में नहीं वृद्धाश्रम में मेरा मुकाम होगा,
नहीं मुश्किल, मैं तो वहाँ भी रह लूँगी,
किंतु जिनके सामने प्रशंसा करते ना थकती थी,
उन्हें मैं क्या जवाब दूँगी।
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एक माँ को जब अपने ही घर से अपना सब कुछ छोड़कर वृद्धाश्रम जाना पड़ता है, जिस घर में अपने बेटे को बड़ा किया हो, अच्छे संस्कार दिए हों वहाँ से जाते वक़्त उसका आखिरी दिन कितना दर्दनाक होता है और उसकी मनोदशा कैसी होती है। अपनी कविता के माध्यम से मैंने यही दर्शाने का प्रयास किया है।