अस्तित्व Anupama Ravindra Singh Thakur
अस्तित्व
Anupama Ravindra Singh Thakurकैसे कह दूँ कि तुम नहीं हो?
पूर्व में उषा की पहली किरण
छाई हुई लालिमा में
तुम्हारे होने का
एहसास जगाती है,
चिड़ियों की चहचहाट में
उनका कोई रक्षक होने का
प्रमाण दे जाती है।
पथ पर भटक रहे पशुओं को
जब कोई रोटी मिल जाती है
तब कैसे कह दूँ कि तुम नहीं हो ?
सुबह की आजान और मंदिर की घंटी
यूँ ही नहीं बजती है,
यह ऋतु चक्र यूँ ही नहीं बदलता है,
यों कड़कड़ाती धूप में भी जब कोई
पंछियों हेतु दाना-पानी रखता है
तब तेरे होने का एहसास दे जाता है,
तब कैसे कह दूँ कि तुम नहीं हो ?
जब चिलचिलाती गर्मी के बाद
सुखद वर्षा होती है,
दहकती वसुंधरा से भी
सौंधी खुशबू आती है,
जब कोई बेसहारा शिशु भी
बिना माँ के पलता है,
भयंकर तपती गर्मी में भी
जब कोई रास्तों पर
मुसाफिरों के लिए
ठंडा पानी
मटकों में भर जाता है,
तब आपके होने का एहसास दे जाता है,
तब कैसे कह दूँ कि तुम नहीं हो?