इंसानियत की मौत Anupama Ravindra Singh Thakur
इंसानियत की मौत
Anupama Ravindra Singh Thakurआज इंसानियत
फिर शर्मसार है,
रास्ते पर पड़ी वृद्धा
निर्बल, बेबस और लाचार है।
अपनी ही पीड़ा में
बेसुध पड़ी है,
वस्त्र कहीं खिसका है
तो चादर कहीं पड़ी है।
जमघट लगा है
इंसानों का,
लेकिन इंसानियत नदारद है,
दया, सहानुभूति, सहायता,
अब केवल पुस्तकों की शान हैं।
कभी भुजाओं में बल था उसके
तो खूब परिश्रम करवा लिया उससे,
आज शिथिल अंग हो गए
तो छोड़ दिया
सड़क पर मरने उसे।
ताक रहे लोग आते-जाते
कुछ नाक भौंह हैं सिकोड़ते,
कुछ उसे 'बेचारी' भी कहते,
तो कुछ दुख में विह्वल होते।
ना रूकता कोई
हाल पूछने,
ना आता कोई उसे
सहारा देने,
ना कोई घर ले जाने।
हर रोज पत्र-पत्रिकाओं में हैं देखते
कई दानशूरों की तस्वीरें,
फिर क्यों कई वृद्ध ऐसे
रास्तों पर पड़े हैं मिलते?
चार दिवस यूँ ही बीते
रास्ते पर उसे पड़े,
मृत्यु की प्रतीक्षा में
नैन उसके अविरल बरसते।
लोग यूँ ही आते-जाते
दूर से ही उसे निहारते,
कपोल-कल्पना लगती है
अब इंसानियत की बातें।
लाश पड़ी है जमीन पर
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं,
मातम मनाओ सारे
आज इंसानियत फिर मरी पड़ी है।