घृणा  Kaushik Kashyap

घृणा

यह कहानी हमे दर्शाती है कि कैसे समाज में लोग किसी के व्यवसाय को उसकी पहचान बना देते हैं।

हमारे मुहल्ले के मिस्टर दारूवाला का व्यापार पूरे मुहल्ले के घृणा का विषय था। अतः यह सदैव चर्चा का विषय बना रहता था। उनका व्यापार था ही निराला, मदिरा का। पूरे मुहल्ले में उनके व्यापार के लिए घृणा का एकमत था, आए दिन गली नुक्कड़ में उनकी ही निंदा होती थी। कोई उनके साथ उठना-बैठना नहीं चाहता था।

मिस्टर दारूवाला स्वभाव से बहुत सज्जन व्यक्ति थे। रोज़ पूजा करने शाम सपरिवार मंदिर जाना, नित्य दान-पुण्य करते रहते थे। यूँ तो शराब आदि का धंधा करने वाले कुछ हिस्सा खुद के लिए भी रख लेते हैं, किन्तु उनको यह अवगुण छू कर भी नहीं गया। शराब बेचने के बाद जो कुछ भी बचता उसी से उनका परिवार चलता। न तो कभी व्यापार बढ़ाने की उन्होंने कोशिश की और न ही बड़ा बंगला बनाने की।

लॉकडाउन लगने के बाद अगली सुबह मेरी मुलाकात उनसे हुई। चेहरा मुरझाया, आँखे भारी मंदिर से लौटते वे यूँ दिखाई दे रहे थे मानो विषैले सर्प का दंश लगा हो अथवा किसी लंबी बीमारी से बच के निकले हों। उनकी यह हालत देखकर मैंने पूछ लिया, “क्यों भाई बत्ती गुल क्यों हो गई चेहरे की?” उत्तर में उन्होंने अपनी आपबीती उगल दी, “क्या बताऊँ भाई साहब, लॉकडॉउन ने तो हड्डी तोड़ दी है कमर की। पूरा माल बेकार हो रहा है, कोल्ड स्टोरेज भी पूरा भरा पड़ा है। भगवान से यही मिन्नत करके आया हूँ कि इसकी लागत बेकार न जाए।” हालचाल पूछ कर वह घर की ओर बढ़ गए। मुहल्ले में उनकी क्या, हर रूप की चर्चा खत्म हो गई।

लॉकडॉउन के तीन महीने बाद जब शराब की दुकान खुलने लगी तो मुझे उनका ख्याल तुरंत आया। मैंने उन्हें चट से फोन लगाकर पूछा, “क्यों भाई साहब अब तो खुल गई दुकानें अब तो आपके मुख पर हँसी वापस आ गई होंगी।” वो हँस पड़े और भाव विभोर होकर कहा, “अरे भाई साहब क्या आप भी। किन्तु हाँ दुकान तो मेरी खुल गई साथ ही दोगुना बिक्री भी हुई है। भगवान की आस्था में देर है अंधेर नहीं। आधी यूनिट तो अपने मुहल्ले वालों ने ही ले ली है। सभी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे दुकान का खुलना सुनकर। मुझे भी खुशी हुई उन्हें खुश देखकर, हम भी तो यह काम सेवा समझकर करते हैं। फिर भी हम कोरोना वरियर्स सी सेवा न कर सकते इसका मलाल रहता है। आपको भी किसी के लिए आर्डर देना है क्या भाई साहब?”

सुनकर मैं नतमस्तक हो गया उनकी भावना और राष्ट्रभक्ति पर।

हँसी मुझे उन पर न आई, आई तो उन मुहल्ले वालों पर और उनकी घृणा पर।

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