अकेली शाम या मैं Aman Kumar Singh
अकेली शाम या मैं
माना अकेलापन स्वयं के खोज की कुंजी है किंतु कभी कभी इंसान इसी अकेलेपन में डूब भी जाता है।
हर शाम की तरह आज भी कुछ नया नहीं था। वही काम से थके हारे लौटना, ऑफिस की बातों में बार-बार मन का अटकना, वगैरह-वगैरह।
मैं हर शाम की तरह छत पर अकेला बैठा हवाओं को महसूस कर रहा था और साथ में ढलते सूरज की लालिमा को देख रहा था कि कैसे जो सूरज खुद तपकर अपने प्रकाश से दुनियाभर में उजाला करता है, वो भी समय चक्र से बेबस होकर मायूस मन से ढल रहा है। कुछ देर बाद सूरज ढल गया और रात का अंधेरा कुछ जाना-पहचाना सा लगने लगा। मैं वहीं बैठा अपने मोबाईल पर कुछ स्क्रॉल कर रहा था, स्क्रॉल करते-करते कुछ ऐसी फोटो दिखी जिससे मेरा मन गहराईयों में डूबता चला गया और न जाने कितने किस्से, कितनी बातें, कितनी यादें और न जाने क्या-क्या आँखों के सामने आने लगा जिससे एक पल को तो चेहरे पर मुस्कान होती और अगले पल ही मायूसी। और कई सवाल उमड़–घुमड़ कर सामने आने लगे कि,
तुम हो तो नहीं साथ में,
पर फिर भी क्यों तुम्हारा एहसास होता है?
पता नहीं मैं तुम्हें याद भी हूं या नहीं,
पर तुम्हारी यादों में भी बिताया हर पल जाने क्यों खास होता है?
तुम्हारी आँखों में अक्सर खुद को देखना मुझे पसंद था न?
वो तुम्हारी मुस्कुराहटें ही थीं ना जिन पर मैं फिदा हुआ था?
तुम्हारे साथ में न जाने कितने सपने थे, तुमसे करने को न जाने कितनी बातें अधूरी हैं।
पर समय का पहिया कुछ ऐसा घूमा, किस्मत में ज़िंदगी को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया कि वो सपने, वो अधूरी बातें, वो चेहरा और उसकी मुस्कुराहटें सब कुछ अधूरा सा रह गया जैसे किसी मूर्तिकार ने कोई मूर्ति बनाकर अधूरी ही छोड़ दी हो और आगे बनाने का उसका मन ही न हुआ हो।
वक्त के साथ उन यादों पर भी धूल जमा होने लगी है, वो सपने बिखरने लगे हैं वो सब कुछ धुंधला पड़ने लगा है। पर मैं अब भी कभी-कभी उस जमी धूल को हटाता हूँ तो सब सामने आ जाता है जैसे कल की ही घटना हो। वो धुंधली यादें ताजा हो उठती हैं और मन की गहराईयों से एक काश निकलकर सामने आ जाता है कि काश ऐसा हुआ होता तो आज ऐसा होता। ज़िंदगी भी अजीब दरिया है न, जिसमें हमें तैरना आता है या नहीं फर्क नहीं पड़ता वो तो बस हमें अपने हिसाब से बहा ले जाएगी। फिर चाहे राह में सुनहली रेत आए या फिर नुकीले पत्थर।
अचानक मेरी नज़र घड़ी पर पड़ी और रात के नौ बज चुके थे। सोचते-सोचते न जाने क्या–क्या ख्याल मन में आकर आँखों के सामने से एक बेतरतीब सी फिल्म चला गए थे जिसके नायक भी हम थे और खलनायक भी। मैंने मोबाईल बंद किया और नीचे रूम की तरफ जाने लगा और उन ख्यालों का पिटारा इस आस में बंद करके कि फिर कभी खोलूँगा इसे और जमी धूल को हटाऊँगा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह था क्या, कहानी? किस्सा? या कुछ और। और तभी अलार्म बज गया और मेरी नींद खुल गई। मैं सो कर उठा तो एक सवाल बार-बार मन में आ रहा था कि उस शाम अकेला कौन था मैं या शाम।