निकम्मा नारद  Upendra Prasad

निकम्मा नारद

यह कहानी हास्य-व्यंग्य से गुज़रते हुए देश के प्रति असीम समर्पण तक जा पहुँचती है। एक गाँव का भोला-भाला आदमी अपनी निस्वार्थ सेवा और निःशुल्क मदद से निकम्मा माना जाता है, समाज में उसे कोई अहमियत नहीं दी जाती। किन्तु जब किसी व्यक्ति, समाज या देश पर संकट आता है तो यही निकम्मा उसे उबारने के लिये निःसंकोच आगे आता है। अन्य लोग या तो खिसक जाते हैं या मूकदर्शक बनकर अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं।

सुबह-सुबह नारद एक मरे हुए कुत्ते को दफनाने के लिये सड़क पर खींचते हुए ले जा रहा था। उसे देखकर किनारे खड़े लोग तरह-तरह से फब्तियाँ कस रहे थे। कुछ लोग कह रहे थे कि इसका बस यही काम रह गया है - मरे हुए पशुओं को दफनाना, तो कुछ यह भी कह रहे थे कि यह किसी काम के लायक नहीं है। किन्तु नारद पर इसका कोई असर न था। वह शांत भाव से अपने काम में लगा रहा।

दरअसल बीती रात कर्नल साहब के कुत्ते को सड़क पर किसी ट्रैक्टर ने कुचल दिया था। पर किसी ने उसे हाथ लगाने की जहमत नहीं उठाई। सुबह होने पर जब कर्नल साहब को पता चला तो वे दौड़े-दौड़े नारद के पास पहुँचे। नारद बड़ी श्रद्धा से उस कुत्ते को दफना रहा था। कर्नल साहब का मन दु:खी था पर यह सब देखकर उन्हें काफी संतोष हुआ। वे पॉकेट से सौ रूपये का नोट निकालकर नारद को देने लगे पर नारद ने नोट लेने से साफ इंकार कर दिया। नारद की नि:स्वार्थ सेवा को देखकर कर्नल साहब भावुक हो गए पर नारद के इसी स्वभाव ने लोगों के सामने उसे निकम्मा बना दिया था। सचमुच जिस काम का मोल नहीं, लोग उसे भाव भी न देते।

नारद सीधा-साधा सरल स्वभाव का आदमी था। उसका हृदय करुणा से भरा था पर दिमाग़ खाली ब्लैकबोर्ड था। छल-प्रपंच से कोसों दूर, पर उसकी बुद्धि बेचारी अक्ल की मारी थी। इसका खामियाजा कभी-कभी उसके परिवार को भी भुगतना पड़ता। माता-पिता के स्वर्गवास के बाद परिवार में बड़ा भाई नारायण और भौजाई राधिका थी। दोनों मिलकर नारद का खूब ख्याल रखते थे। नारद को भी भाई-भौजाई के रहते कभी माता-पिता की कमी नहीं खली। नारायण मजदूरी कर घर चलाते और नारद दिनभर खलिहान में रहकर गाय-बैलों की देखभाल करता। गाय तो सीधी थी पर बैल बहुत बदमाश था। इन बैलों ने एक बार नारद को ही अपने सींगों से उठाकर घर के छप्पड़ पर फेंक दिया था। खैर थी कि वह नीचे गिरा नहीं।

बैलों से आजीज आकर नारायण उसे बेचना चाहता था पर मनचाहे मूल्य पर बिकना आसान न था। जो भी व्यापारी आता, इन बैलों की अप्रत्याशित हरकत देखकर बिना मोल-भाव किए वापस चला जाता। अब नारायण इन बैलों को खरीद मूल्य पर ही बेचने को तैयार था। संयोगवश एक व्यापारी कम कीमत सुनकर इन बैलों को खरीदने को राजी हो गया। व्यापारी मन-ही-मन खुश था कि उसने बाज़ी मार ली है। उसने झटपट रूपए गिनकर बैल खोलने के लिए खलिहान पहुँचा। वहाँ नारद बैलों को खिला रहा था जबकि नारायण घर पर ही रुपयों को मिलाने के लिये रुक गया। व्यापारी ने बैल खरीद लेने की बात की। सुनते ही नारद ने तपाक से बोला- "ठीक हुआ कि बिक गया, नहीं तो एक दिन यह मेरी जान ही ले लेता। कल ही पटककर मेरे छाती पर चढ़ गया था। ऐसा बदमाश बैल पहले कभी नहीं देखा। आप भी अपने बच्चा को इससे दूर रखिएगा।" यह सुनते ही व्यापारी को काठ मार गया। उल्टे पाँव नारायण के पास पहुँचा और पैसे वापस करने की माँग करने लगा। उसने बोला- "आपके भाई ने इन बैलों की करतूतों के बारे में सब कुछ बता दिया है। मुझे नहीं खरीदना इन बदमाश बैलों को। एक बार गलती से इस फेरे में पड़े थे तो एक हाथ तुड़वाकर बैठे हैं, अब इन बैलों को ले जाकर मैं दूसरा हाथ भी तुड़वा लूँ?" नारद ने अज्ञानतावश भाई की बानी बनाई योजना पर पानी फेर दिया था। फलत: व्यापारी द्वारा रुपया लेकर चले जाने के बाद नारायण ने नारद को खूब डाँटा। किन्तु भोला-भाला नारद यह समझ न सका कि उसे किस बात की डाँट पड़ी है क्योंकि वह तो झूठ बोला ही नहीं था।

सरल सपाट होते हुए भी नारद की एक बड़ी कमज़ोरी थी, चित्तभर चिलम और भटपेट भोजन। जबतक चिलम का कश नहीं लेता तब तक उठने का नाम ही नहीं लेता। भोजन ऐसा कि उसे निमंत्रित करने के लिये बड़े-बड़े लोगों को सोचना पड़ता। अठारह रोटी तो केवल नाश्ते में तोड़ता, तोला-के-तोला मठ्ठा वह खड़े-खड़े गटक जाता। इसलिए भरपेट भोजन तो वह किसी भोज में ही कर पाता। एक बार किसी सज्जन ने खुश होकर उसे खाना खिलाने एक फिक्स रेट पर भरपेट भोजन वाले होटल पहुँचे। पालथी मारकर नारद जब खाने बैठा तो होटल वाले को चूल्हे से उठने नहीं दिया। सभी ग्राहक अपनी बारी का इंतजार करते-करते चले गए। अंत में होटलवाले को सरेंडर करना पड़ा।

एक समय की बात है कि उसे गाँव के एक बारात में जाने का मौका मिला। बारात उसके गाँव से ट्रेन द्वारा शहर में जानी थी। पर उसे इस शर्त के साथ अनुमति मिली कि सभी गाय-बैलों को नहलाकर और खिलाकर जाएगा। शर्त पूरा करते-करते वह पीछे छूट गया। सभी बाराती ट्रेन से प्रस्थान कर चुके थे। पर शर्त पूरी होने के बाद अब वह कहाँ मानने वाला था। वह अकेले ही शाम वाली ट्रेन में सवार होकर चल दिया। टिकट से अनभिज्ञ था। पॉकेट भी खाली था। ट्रेन से उतरते ही टीसी ने उसे थाम लिया। उसे ले जाकर मच्छर खाने में बंद कर दिया। रातभर मच्छरों से जूझता रहा। सुबह बारात वापसी के समय किसी की नज़र उसपर पड़ी तो उसे छुड़ाकर बाहर निकाला। भले वह बारात में शामिल न हो सका पर साथ लौटने का मज़ा तो उसे मिल ही गया।

दोनों भाईयों की युगलबंदी पर किसी चुगलखोर की नज़र लग गई। भोले-भाले नारद को बहकाकर शादी करने के लिये प्रेरित कर दिया। नारद घर जाकर भौजी से बोला- "मैं शादी करना चाहता हूँ। मुझे भी अपना घर बसाना है।" पहले तो राधिका को लगा कि वह मज़ाक कर रहा है परन्तु नारद को गंभीर देखकर उसे दाल में कुछ काला नज़र आया। वह बड़े प्रेम से पूछी- "देवर जी ! शादी के लिये कमाना ज़रूरी है। कमाने के लिए कुछ सोचा है?" "हाँ भौजी, एसपी साहब अपने यहाँ ले जाने को तैयार हैं।" नारद ने तपाक से जवाब दिया। "ठीक है भैया को राजी कर लूँगी। तुम जाने की तैयारी करो।" राधिका ने हामी भरते हुए कहा।

एसपी साहब गाँव से नारद को लिए अपने काम पर लौटे। नारद को तत्काल खटाल से दूध लाने का काम मिला। दूध लाने के क्रम में नारद ने कई केन-कमण्डलों को तोड़ डाला। अंत में उसे दूध लाने के लिए एक मजबूत बाल्टी देना पड़ा। समय बीतने के साथ अब वह गेट कीपिंग का कार्य भी देखने लगा। दीपावली का दिन था। कई दिनों से घर जाने के लिए वह पगार की माँग कर रहा था परन्तु एसपी साहब उसे टालते जा रहे थे। इसलिए इन दिनों उसका मूड ठीक नहीं चल रहा था। अस्तु, दीपावली के दिन तो एसपी साहब के पास बहुत लोग तोहफ़े लेकर आने वाले थे। फलत: उस दिन नारद की गेट ड्यूटी काफी कड़ी हो गई। दोपहर के बाद एसपी साहब खाना खाकर आराम करने लगे तथा नारद को आदेश दिये कि किसी भी व्यक्ति को अंदर नहीं आने दे। इसी बीच एसपी साहब का साला तोहफे के साथ वहाँ पहुँचा। एक तो एसपी साहब का रिश्तेदार, दूसरा रिश्ता ऐसा कि कोई सामने खड़ा होने की हिम्मत न करे। पूरे आव-ताव से साला साहब ने घर में घुसने की कोशिश की पर नारद हाथ पकड़कर गेट के बाहर ही रोक लिया। साला साहब आगबबूला हो गए। उसने नारद को एक थप्पड़ जड़ दी। नारद भी कहाँ मानने वाला था। वह तो आदेश का पक्का पालक था। लगे हाथ साला साहब को पटक कर छाती पर बैठ गया। शोरगुल सुनकर एसपी की नींद टूट गई, बाहर निकलकर देखा तो आवाक रह गए। ज़ोर से चिल्लाए- "अरे नारद यह क्या? ये मेरे साला हैं। तुमने पहचाना नहीं। दूसरों को आने से मना किया था, अपने साला को नहीं। उठो माफ़ी माँगो इनसे।" नारद उठता इससे पहले साला साहब की मरम्मत हो चुकी थी। नारद उठकर माफ़ी माँगते हुए उनके कपड़े पर लगी मिट्टी झाड़ने लगा। वह बोला- "पहले न बोले होते सर, हम आपको अंदर ले जाते। अब पहचान गए, कभी दिक्कत नहीं होगी।" वह जले पर और नमक छिड़क रहा था। साला साहब खून का घूँट पीकर रह गए। खैर किसी तरह मामला बिगड़ने से बचा। दीपावली की औपचारिक शुभकामना के साथ गपसप चलता रहा। शाम होने को आई तो बिजली-बत्ती की जुगाड़ में जुट गए। इसके लिये जेनरेटर स्टार्ट करना था, पर नारद को स्टार्ट करने आता नहीं था। फलत: साला साहब उसकी मदद के लिए साथ गए। जेनरेटर भी एक तंग कोने में रखा हुआ था। उसका हैंडल चलानेवाला बाहर की ओर था जबकि कंप्रेसर अंदर की ओर था। नारद को केवल हैंडल चलाने आता था, इसलिए साला साहब कंप्रेसर गिराने अंदर कोने में चले गए। नारद पूरी मिट्टी लगाकर हैंडल को मशीन पर चढ़ाया और जोर-जोर से चलाने लगा। ज्योंहि मशीन रनिंग में आया, साला साहब कंप्रेसर गिरा दिये। मशीन चालू हो गया किन्तु हैंडल नहीं निकला। नारद जान बचाकर वहाँ से भाग खड़ा हुआ जबकि साला साहब अंदर होने के कारण वहीं फँस गए। न जाने कब हैंडल छिटक कर उनका काम तमाम कर देता। वे एक कोने में दुबककर बैठ गए, मौत सामने खड़ी थी। दौड़ा-दौड़ा नारद एसपी साहब के पास पहुँचा- "सर, सर हैंडल नहीं निकल रहा है मशीन से।" एसपी साहब समझ गए कि फिर कोई गड़बड़ किया। दौड़कर देखे तो मशीन के साथ हैंडल तेजी से चक्कर लगा रहा था तथा साले साहब की हालत पतली हो चुकी थी। वे जान पर खेलकर मशीन को बंद किए। साला साहब बाहर निकले और राहत की साँस ली। एसपी साहब ने तुरंत एक ऑटो रुकवाया और नारद को उसपर बिठाकर बैग एंड बैगेज विदा कर दिया।

नारद बैरंग गाँव वापस आ गया पर अपनी शादी के लिये उसे कमाने बाहर जाना ही था। कोई भला आदमी मिले जो उसको अच्छे से बाहर में रख सके। उसके असाधारण खाने की समस्या भी असहनीय थी। बड़ा भाई नारायण चिंतित था। उसने कर्नल साहब से इसके लिए विनती की। कर्नल साहब नारद के सरल स्वभाव से सुपरिचित थे, अत: उसे अपने साथ ले जाने में जरा भी संकोच नहीं किया।

कर्नल साहब की पोस्टिंग इन दिनों बॉर्डर पर थी। आतंकवाद से निपटने में वे माहिर थे। इसलिए वे आतंकवादियों के हिट-लिस्ट में थे। कहते हैं कि जीवन की गति उसकी संगति से प्रभावित होती है। कर्नल साहब के साथ रहते-रहते नारद का मन भी देशभक्ति के रंग में रँगने लगा था। एक दिन सेना में भर्ती की इच्छा जताई। कर्नल साहब उसे लेकर भर्तीस्थल पहुँचे। दौड़-कूद में अव्वल आया पर मेडिकल में अनफिट हो गया। वह काफी निराश हुआ। किन्तु कर्नल साहब ने उसे हिम्मत दी कि सेना में भर्ती नहीं हुआ तो क्या हुआ, हम देश सेवा के लायक हैं, यह साबित कर दिखाना है।

एक दिन कर्नल साहब का जन्मदिन समारोह था। बड़े -बड़े अधिकारी उस समारोह में शामिल होने वाले थे। आतंकवादियों के लिए यह सुनहरा अवसर था। दिनभर रेकी करते रहे। शाम को ज्योंहि नारद केक लाने दुकान पहुँचा, आतंकवादियों ने उसका अपहरण कर लिया। उसे काफी यातनाएँ दी गईं पर उसने कर्नल साहब के बारे में कोई भी जानकारी देने से साफ इंकार कर दिया। तब आतंकवादियों ने नारद के शरीर पर आत्मघाती बम बाँधते हुए एक केक थमाया और कहा कि जाओ यह केक कर्नल साहब को दे देना। अगर धोखा दिया तो तुम्हें बम से उड़ा देंगे। यह केक बम ही था जो इसकी मोमबत्ती में आग लगते ही ब्लास्ट कर जाता। नारद बहुत डर गया पर देशभक्ति का भूत सवार था। देशसेवा का इससे बेहतर अवसर मिलना उसके लिये नामुमकिन था। उसने साहस कर बोला- "ठीक है, पर मैं बिना चिलम चढ़ाए यह कार्य नहीं कर सकता।" आतंकवादियों को यह माँग आवश्यक एवं आकर्षक लगी। सभी मिलकर चिलम का कश लेने लगे। इसी बीच नारद ने चिलम से मोमबत्ती को सुलगा दिया। धमाके के साथ बम फटा और नारद सहित सारे आतंकवादी चीथड़े -चीथड़े हो गए। नारद ने अपना सर्वोच्च बलिदान देकर कर्नल सहित कई अधिकारियों की जान बचाई। जो कल किसी के लायक नहीं था, आज देश का महानायक बन गया।

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