गरीब की लाचारी  Lakshmi Agarwal

गरीब की लाचारी

गरीब का सच में किसी से कोई रिश्ता नहीं होता, उसका तो सिर्फ लाचारी से नाता होता है और आजीवन वही उसके साथ रहती है

सोमू एक बहुत बड़ी फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर था। हैसियत से बेशक वह मजदूर था परन्तु उसका आत्मविश्वास बहुत दृढ़ था। वह स्वयं पढ़-लिखकर कुछ बड़ा करना चाहता था। पर गरीब के सपने उसके चाहने भर से ही पूरे नहीं हो जाते। गरीब के सपनों की कीमत भी बहुत बड़ी होती है, जिसे चुका पाने का न तो उसकी सामर्थ्य था और न ही परिस्थितियाँ उसके अनुकूल। छोटी उम्र में ही पिता के स्वर्गवास के बाद माँ और 4 बहनों की जिम्मेदारी। इन हालातों में उसके लिए अपनी पढ़ाई जारी रखकर हौंसलों की उड़ान भरना संभव नहीं था। इसलिए उसने दृढ़ संकल्प हो अपने परिवार के पालन-पोषण को अपना परम धर्म समझकर एक मजदूर का काम चुनना ही बेहतर समझा। माना यह नौकरी उसके सपने छीन लेगी, शायद उसे फिर दोबारा उड़ने को खुला आकाश भी न मिल पाए, पर एक बात तो तय थी वो यह कि इस काम से वह अपने परिवार को दो वक्त की रोटी भरपेट खिला सकता था। बस यही सुकून उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता।

मजदूरी करते-करते कब उसके जीवन का वसंत पतझड़ में बदल गया उसे पता ही न चला। 4 छोटी बहनों की शादी करते-करते उसकी आधी उम्र ढल चुकी थी पर उसे इस बात का कोई अफ़सोस न था। क्योंकि अपनी मेहनत और लगन से दिन-रात एक करके उसने अपनी सभी बहनों को पढ़ा-लिखाकर अफसर बना दिया था और उन सबका ब्याह भी संपन्न घरों में कर दिया था। अपनी बहनों की कामयाबी और उनके खिलखिलाते चेहरे देखकर उसे लगता जैसे उसने अपने सपनों की उड़ान भर ली हो। कोई और लालसा अब उसके जीवन में शेष न रही। पर माँ का दिल तो माँ का ही होता है। अपने बेटे के इस त्याग पर वह उस पर बलिहारी जाती और हमेशा उसे अपना घर बसाने की सलाह देती। पर वह हमेशा बहनों की जिम्मेदारी की बात कहकर टाल जाता पर अब तो वे भी अपने-अपने घर चली गईं थीं, अब किस बात की फिक्र।

मौका देखकर आज माँ ने फिर एक बार सोमू से उसकी शादी के बारे में बात की। बेटा सोमू, बेटियाँ सब अपने घर-बार में रच-बस गईं हैं। वे भी अब ज्यादा यहाँ आ-जा नहीं सकती उनके जाने के बाद हम दोनों ही रह गए। तू भी मजदूरी पर चला जाता है। मैं सारा दिन घर में अकेली रह जाती हूँ। मेरा शरीर भी अब जबाव देने लगा है। अकेले खुद की देखभाल करना अब मेरे बस की बात नहीं रही। और फिर मुझे कुछ हो गया तो तू बिलकुल अकेला पड़ जाएगा, इसलिए बेटा मेरी बात मान और अपना घर बसा ले। मुझे भी घर में किसी का सहारा हो जाएगा। बेटियों के जाने से जो हमारा आँगन सूना हो गया, घर की रौनक चली गई, वो एक बार फिर लौट आएगी। बहू के आने से यह आँगन फिर से हरा-भरा हो जाएगा। पोते-पोतियों की खिलखिलाहट से मैं एक बार फिर जी उठूँगी। माँ ने सोमू को समझाते हुए कहा। ठीक है माँ, जैसा तुम्हें सही लगे, सहमति देते हुए सोमू ने कहा।

बस फिर क्या था माँ ने जल्द ही एक गुणी लड़की सोना से सोमू की शादी की बात चला दी। हालाँकि लड़की ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर मेहनती बहुत थी। चारों बहनों को भाई की शादी का निमंत्रण देने माँ खुद गईं, परन्तु चारों ने टका सा जबाव देकर माँ को लौटा दिया। उनका मानना था कि एक मजदूर की शादी में जाकर वे अपना रुतबा कैसे काम कर सकती हैं। समाज में उनके पतियों का अच्छा नाम है, उनका खुद का भी सोशल ग्रुप है, अपनी पहचान है। इस शादी में जाने से सामज में उनकी हँसी उड़ेगी। इसलिए चारों ने इस शादी से किनारा कर लिया। बेटियों के इस व्यवहार से माँ आहत थी। जिन बहनों के लिए मेरे बच्चे ने अपनी जिंदगी, अपने सपने बिना सोचे-समझे कुरबान कर दिए, उन्हें आज अपने भाई की शादी में सम्मिलित होने में भी शर्म आ रही है। छी! कैसी ओछी सोच है यह। उन लोगों को एक बार भी अपने भाई के त्याग का एहसास नहीं हुआ, बस अपनी झूठी शानोशौकत की परवाह है, जो कि मेरे सोमू की बदौलत है। वह अगर इनके लिए कड़ी मेहनत करके इनके सपने पूरे नहीं करता तो क्या आज ये इस तरह की बातें कर पातीं। गलती मेरे सोमू की ही है, जो उसने अपनी इन स्वार्थी बहनों के लिए अपना जीवन झोंक दिया। सोचते हुए माँ कब घर पहुँच गई पता ही न चला। माँ को इस तरह निढाल सा देखकर सोमू चिंतित हुआ, माँ तुम्हारी तबीयत तो ठीक है या किसी ने कुछ कहा। माँ में सच बताने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए सोमू को कुछ नहीं बताया। नहीं रे!बस थोड़ी उम्र हो गई न इसलिए थक गई जल्दी और कुछ नहीं।

जल्द ही शादी का दिन भी आया और सोमू की शादी हो गई। शादी में सब बहनों के बारे में पूछते रहे पर माँ हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर टाल जाती। किसी तरह शादी संपन्न हुई पर सोमू को बार-बार अपनी बहनों की याद आ रही थी। इस ख़ुशी के मौके पर माँ ने चुप रहना ही सही समझा। धीरे-धीरे समय बीतता गया और सोना गर्भवती हुई और जल्द ही एक स्वस्थ शिशु को जन्म दिया। घर में तो जैसे खुशियों की बहार आ गई थी। पर भतीजे के जन्म के समय भी उसकी बुआओं की गैर मौजूदगी सबको अखर रही थी। खैर बुआ के बिना ही नामकरण संस्कार संपन्न हुआ। बच्चे का नाम कुंज रखा गया। समय को तो जैसे पंख लग गए थे, देखते-देखते कब पाँच साल बीत गए, पता ही न चला। सोमू अपने परिवार के साथ सुखद और संतोषी जीवन व्यतीत कर रहा था पर उसकी इस खुशी को शायद किसी की बुरी नजर लग गई थी। एक दिन अचानक स्कूल से लौटते समय कुंज सोना का हाथ छुड़ाकर तेजी से सड़क की ओर भागा और एक कार से टक्कर खाकर लहूलुहान हो गया। आनन-फानन में सोना उसे लेकर अस्पताल पहुँची और डॉक्टर से जल्द से जल्द इलाज शुरू करने की गुहार लगाई। साहब ! देखिए न मेरे बच्चे को क्या हो गया है। कितना खून बह रहा है, आप जल्द से जल्द इलाज शुरू कर दीजिए। जी आप पहले अस्पताल की सारी औपचारिकताएँ पूरी कर दीजिए और पैसे भी जमा करवा दीजिए तब तक हम ऑपरेशन की तैयारी करते हैं। तब तक सोमू भी अस्पताल पहुँच चुका था। उसने फीस के बारे में पूछा तो सकते में आ गया। दो लाख रुपए! इतनी बड़ी रकम मैं कहाँ ने लाऊँगा, सोमू चिंतित हो उठा। सोना ने बिलखते हुए कहा, मुझे कुछ नहीं पता, आप कैसे भी पैसों का इंतजाम कीजिए और मेरे कुंज को बचा लीजिए। मैंने जीवन में आपसे कभी कुछ नहीं माँगा पर आज मेरे बच्चे की जिंदगी माँगती हूँ। सोना ने दुहाई दी।

सोमू भी किसी भी कीमत पर कुंज को बचाना चाहता था पर वास्तविकता से अनजान नहीं था वो। दो लाख तो दूर उसके लिए बीस हजार जुटाना भी संभव नहीं था। ऐसे में उसे अपनी बहन-बहनोइयों की याद आई। वे लोग जरूर उसकी मदद करेंगे। वह डॉक्टर को समय पर पैसे जमा करने का आश्वासन देकर तुरंत बहनों के घर की ओर भागा। भतीजे की हालत सुनकर पसीजना तो दूर किसी ने झूठी सहानुभूति भी न दिखाई। उल्टा सबने यह कहकर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया कि तुम्हारी आमदनी तो ज्यादा है नहीं, जमा-पूँजी कुछ नहीं। तुम्हारी पूरी कमाई तो दैनिक जरूरतों को पूरी करने में खत्म हो जाती है, ऐसे में तुम हमारा उधार कैसे चुकाओगे। सोमू बहुत गिड़गिड़ाया, उनकी पाई-पाई चुकाने की दुहाई दी पर किसी के कान पर जूँ भी न रेंगी। उसने भाई-बहन के रिश्ते का वास्ता दिया पर किसी को कोई फर्क न पड़ा। एक बहन ने तो दो टूक कह दिया कि गरीब का कोई रिश्ता नहीं होता। अगर उसके पास कुछ होता है तो वह है उसकी लाचारी। बहनों की बातों से आहत होकर सोमू ने कारखाने मालिक से उधार लेने की सोची पर वहाँ भी निराशा ही हाथ लगी। पैसों के इंतजाम के लिए भटकते-भटकते पूरी दिन बीत गया पर उसके हाथ रीते ही रहे। निराश होकर वह अस्पताल लौटा डॉक्टर से ही अपने बच्चे की जान बचाने की भीख माँगी पर सब निरर्थक-बेअसर रहा। उसकी लाचारी देखने वाला कोई नहीं था। समय पर इलाज न होने के कारण वह कुंज को न बचा सका। आज उसे अपनी बहन की बात शूल की तरह चुभ रही थी। अपनी संतान को न बचा पाने का अपराधभाव उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था। आज उसने खुद को जितना लाचार महसूस किया उतना तो अपने सपने बिखरते देखकर भी नहीं किया था। अपने सपने टूटने पर भी अपनी बहनों के सपने पूरे करने का संतोष और खुशी थी उसे। पर शायद आज उसे समझ आ गया कि गरीब का सच में किसी से कोई रिश्ता नहीं होता, उसका तो सिर्फ लाचारी से नाता होता है और आजीवन वही उसके साथ रहती है। रिश्ते-नातों का असली मतलब शायद आज उसकी बहनों ने सिखा दिया था।

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