द्रोपदी चिरहरण

था खेल द्युत का, शकुनी की एक धुर्तता भरी चाल थी !
कुरुवंश के पतन का बीज बोने नियती साथ बनकर अाती काल थी ।
स्वयं को हारे हुये युद्धीष्टीर ने जब हार दिया द्रोपदी को भी अंतिम दाव में,
संपुर्ण सभा मानो मुर्छित हो गयी, रक्तधार बह निकली हो जैसे रिसते हुये घाव सें ।
जब इसे अप्रिय-अनुचित बताकर विदुर और भीष्म नें पांडवो और का पक्ष लिया ,
उनको अपमानित कर अपने कुतर्कों से , दुर्योधन ने सर्व सभा को नि:शब्द कीया ।
पितामह भीष्म , गुरु द्रोण , कृपाचार्य , विदुर और स्वयं महाराज धृतराष्ट्र भी मौन रहे ,
बंधे हुये सब अपने वचनो, निती,धर्म, मोह की विवशता से किसी ने न दो शब्द कहे ।
दुर्योधन ने अपने प्रतिशोध के लिए इसे ही सर्वोचित समय जाना,
वो विस्मृत न कर पाया था अब तक 'अंधे का पुत्र अंधा' द्रोपदी का वो ताना ।
पांच पतियो वाली कहकर द्रोपदी को वैश्या जैसे अपशब्द कहे,
विवश से पांडव पांचो , क्रोध का घुंट पी कर मौन रहे ।
दुर्योधन ने अपनी पापमति को फिर नया आयाम दिया ,
द्वारपाल के हाथों, द्रोपदी को दासी बना द्युतगृह में लाने के लिए आदेश किया ।
जब द्वारपाल के साथ द्रोपदी ने सभा में आना कर दिया अस्वीकार,
दुर्योधन ने फिर द्रोपदी को बलपुर्वक ले आने के लिए सुस्सासन का किया तैयार ।
भुलाकर मर्योदायें द्रोपदी के कक्ष में दुस्सान निर्लज्ज हो सीधे प्रवेश कर गया,
द्रोपदी ने वो कटुवचन कहे इस दुस्साहस पर की वो क्रोध से भर गया ।
वो देती रही अपने रजस्वला होने और किसी के सामने न जाने की विवशता की भी दुहायी,
मगर दुस्सासन को उसके अनुनय विनय कि कोई विनती न दी सुनायी ।
द्रोपदी के विरोध करने पर कुमति के अधीन हो दुस्सासन उसके केश पकड़ उसे घसीटने लगा,
रोती बिलखती कराहती द्रोपदी की दुर्दशा देख मानो समय भी नियती पे सर पिटने लगा ।
पहुंचा जब दुस्सासन द्रोपदी को लेकर द्युतसभा में, पांडव ग्लानी से भर गये,
झुक गये शीश परम योद्धाओं के , सबके अश्रु बह निकले कंठ से सबके स्वर गये ।
उद्दंडता से दुर्योधन ने द्रोपदी को दासी , पांच पतियों वाली कहकर संबोधित किया,
महारथी कर्ण ने भी द्रोपदी को अपमानित कर स्वयं को 'सुतपुत्र' कहे जाने का प्रतिशोध लिया ।
दुस्सासन से अपने केश छुड़ा द्रोपदी तेजी से बड़ी सिंहासन की और,
थे जहा ज्येष्ठ पिता श्री, तात् श्री , काका विदुर और गुरुजन शीश झुकाये, लज्जा में घोर ।
देखकर मुंह छुपाते वरिष्ठजनो को अपने, द्रोपदी से और न रहा गया,
दुर्जनो के कुकर्मो पर सज्जनो का मौन उससे न अब सहा  गया ।
मारे पीड़ा और क्रोध के निकलने लगे मुख से उसके कठोर वचन 
धिक्कारा पौरुष और सामर्थ्य को महारथीयो के , रह गयी मसोस कर अपना मन

हे महाराज धृतराष्ट्र, हे सिंहासन के निष्ठावान रक्षक भीष्म, हे गुरुजनो !
यु शीश झुका कर असमर्थ लाचार से , और अब न मुक बनो ।
कहिये गंगापुत्र भीष्म आपके दिये 'सदा सौभाग्यवती रहो' के आशीर्वचन का क्या यही है अर्थ ?
है गुरु द्रोण , मेरे पिता के मित्र होने के नाते मुझे अपनी पुत्री कहना क्या हो गया इस घड़ी सब व्यर्थ ।
है महाराज धृतराष्ट्र आपके अनुज की पांडु की पुत्रवधु के प्रति ये व्यवहार अनुचित नही ?
या खोखली हो गयी है , क्षत्रियता आप लोगो की जाऊ मैं अपने प्रश्नो के उत्तर खोजने और कही ?
ये प्रश्न केवल मेरा नही ,हर युग की हर नारी पुछेगी तुमसे जब तक रहेगा ये संसार ,
जो हार जाये स्वयं को जुंऐ में उसे दुसरे की स्वतंत्रता दाव पर लगाने का भला क्या अधिकार ?
कहो क्या राजधर्म क्या न्यायतंत्र क्या नीतिशास्त्र कहता है भरतवंशी परंपरा का ?
कुलवधु को अपमानित करते हुए द्युतगृह में लाना क्या सबसे घोर अधर्म नही ये धरा का ?
ये मौन तुम्हारा कलंकित कर रहा है क्षत्रियों को, उनके अभिमान को !
क्या यु ही सह लिया जायेगा, आर्यव्रत की कुलवधु के इस अपमान को ?

हार चुका है युद्धीष्टीर तुम्हें तुम कोई कुलवधु नही महज एक दासी हो ! हाँ दासी हो !
और दासी का कोई मान- अपमान नही , न समय नष्ट करो यु व्यर्थ रो रो ।
कहो दासी का सम्मान कैसा और भला अभिमान कैसा ?
निरवस्त्र भी हो दासी अगर यहा, कहो उसका अपमान कैसा !
न बचा सके पांचो पति मिलकर भी अगर तुम्हारा स्वाभिमान, तुम्हारी लाज,
बैठो मित्र दुर्योधन की जंघा पर ,आजमाकर देख लो इसे भी आज । 
सुनकर कर्ण की ये बातें दुर्योधन की कुबुद्धि में फिर नया कुविचार अाया ,
कर दो दुस्सासन इस दासी द्रोपदी को निरवस्त्र देखे इन वस्त्रो में क्या रुप है समाया ! 

सुनकर शब्द दुर्योधन के, सब का रक्त खोल गया,
दुर्योधन अपनी महत्वकांक्षाओ को प्रतिशोध की हठ पर तौल गया ।
क्रोधित महारथियों के हाथ अपने अस्त्र-शस्त्रों तक जा पहुचें !
परंतु समय के बंधन में नीति वचनो में बंधे योद्धा रह गये बस हाथ भींचे !
होता आया है सदा से यही, यही नियती रही इस देश और इस समाज की ,
वीर योद्धा भी लाचार पाये जाते है, जब प्रासंगिकता हो नारी लाज की ।
या यु कहु ,वीरता, साहस, पराक्रम और सारी बल-बुद्धी बस धरी रह जाते है ,
समय और नियती चक्र जब सबको अपनी कसौटी पर आजमाते है ।

दुस्सासन अपने भ्राता के आदेश का पालन करने लगा ,
निर्ल्लज! पापी ! भरी सभा में द्रोपदी का चिर हरने लगा ।
नम आंखे लिए शीश झुकाये लाचार बैठे रहे पितामह, द्रोण, कृप‍ाचार्य, और विदुर  
पाया द्रोपदी ने अकेला स्वयं को , दास बने पांडव भी हो गये थे पाषाण से निष्ठुर ।
नियती मान इसी को द्रोपदी ने अंत में छोड़ दिया संघर्ष ,
मुंद कर आंखे सहायता हेतु स्मरण करने लगी 'श्री कृष्ण' को सहर्ष ।
चले आये कृष्ण द्रोपदी की सहायता को, खत्म न होने दिया द्रोपदी का चिर
जितना खींचा उतना बढ़ता गया, थककर आखिर दुस्सासन गया धरा पे गिर ।
बज गयी लाज द्रोपदी की, प्रभु , स्मरण करते ही जो थे चले आये,
विडम्बना रही यही की वीर योद्धा और महारथी भी एक नारी के सम्मान की रक्षा न कर पाये ।

यही व्याकुल करता है मुझे की !

अब भी दुस्सासन करते है द्रोपदीयों के चिर हरण ,
होता है कोमल हिरणीयों का भेड़ीयो द्वारा भक्षण ।
और प्राण दे देती है वें अपनी लाज बाचाते बचाते !
मौन ही रहता है जब समाज हर युग में, फिर क्यों उन्हे बचाने स्वंय कृष्ण नही आते ?

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