मजबूर मजदूर

यह धूल भूल, कष्टों का शूल
मजदूरी किसे सुहाती है?
खुद को निर्माणी, स्वाभिमानी
कह करके मन बहलाती है।।
 

भौतिक रचना को कहे अनमोल,
प्रभु की रचना पर कुछ तो बोल?
ये थके पाँव, महलों के घाव
प्रतिदिन की व्यथा बताती है।।
 

वैभव की सृष्टि पर, हेय दृष्टि
बस यही तो निशदिन पाया है।
तुम सब की खुशियों के ख़ातिर,
बस गीत सृजन का गाया है।।
 

वसुधा कुटुम्ब की नीति दूर,
संसार नीति है अति क्रूर ।
विधि की नियति को मान महल,
माटी स्वीकार करे मजदूर।।

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