सरसों पे लिखी रुबाई में
तुम
आज भी
शाम को
जब उस तलहटी से गुजरते होंगे
जहाँ हमारी
थपकियाँ दी गईं शामें ज़िंदा हैं
तो
तुम जरूर हवाओं को छेड़ते होगे
नदियों की कमर में
कई भँवर डालते होगे
आम के पेड़ों पर
जो नई बौराई आई है
उसे चूमते होगे
हरी अँगिया लपेटकर
शर्माती मक्के की बालियों को
उँगलियों से सहलाते होगे
मिट्टी की सोंधी खुशबू को
अपने जिस्म में लपेटते होगे
खेत के बीचों-बीच मचानों से
जब दुधिया दुपट्टा
चाँद का ढलक जाता होगा
तुम जरुर उस हरजाई को
जोरा-जोरी करके बिगाड़ते होगे
वहीं कहीं दूर से
शाम को घर लौटती
किसी नई नवेली दुल्हन की
पायल खनकती होगी
तो
तुम यकीनन
सरसों के छरहरे बदन पर
कृष्ण की तरह
राधा के लिए
कोई प्रेम गीत लिखते होगे
क्योंकि
वो शाम के जिंदा होने में
हवाओं के मचलते जाने में
नदियों के राह भटकने में
आमों के जल्दी पकने में
मक्के की गदराई में
मिट्टी की रज़ाई में
चाँद की अँगड़ाई में
नई-नवेली दुल्हन की परछाई में
सरसों पे लिखी रुबाई में
मैं ही हूँ
जिसे तुम महसूस करते हो
तो
दूर देश में कोई जी उठता है।।