तलाक़  Prashant Kumar Dwivedi

तलाक़

Prashant Kumar Dwivedi

क्यों तुम्हें ही ये हक़ अदा हो कि
तुम परखो मेरी पाकीज़गी,
क्यों हमारे घर की दहलीज
मेरे लिए दायरा और तुम्हारे लिए
महज चौखट हो,
क्यों मैं ढक कर रखूँ खुद को
काले भारी
बुर्के में,
तपती जून की दोपहरी में,
क्यों मेरा जेहन,मेरी रूह
क़ैद रहे इस ख़ौफ़ में
कहीं तुम मुझे व्हाट्सएप्प न कर दो तलाक़नामा,
क्यों न इससे पहले ही मैं
बेदख़ल कर दूँ तुम्हें अपनी जीस्त से,
जज्बात से,
और न चौखट देखूँ न दायरा,
चल पडूँ,बस चलती जाऊँ

लेकिन आसान भी कहाँ है,
निकाहनामे  के बाद भले 
तुम सेक्रटरी से होटल में मिलो,
चाहे दावतों में शराब पियो 
फिर मेरी खाल खींचों
लेकिन गुनाह मेरा टूटा हुआ मन है,
अधूरी हसरते हैं
मैं अब तुम्हारे लिए फिर चहक नहीं 
पाती और तुम नाराज़ हो जाते हो
और मेरी चहक तो क्या चीखें भी
बन्द कर देते हो व्हाट्सएप्प भेजकर
लिखा है
तलाक़! तलाक़! तलाक़!

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