एक सैनिक की आस  Nishtha Pandey

एक सैनिक की आस

Nishtha Pandey

खड़ा हुआ इन पर्वतों पे कभी यूँही सोचता हूँ मैं
कि आख़िर कब घर वापिस जा पाऊँगा मैं…..
 

रोज सुबह खुला आसमाँ देखता हूँ अपने सामने
उम्मीद की किरण आती है मुझे थामने
अमन और शांति की आस जागती है दिल में
बस अब बारूद से नही, प्यार से मिलने की तमन्ना उठती है मन में….
तभी गोलियों की झरझराहट अर्श कर देती है सपनो को
वो आवाज़ दुत्कार के कहती है मुझे कि आख़िर तुम उम्मीद भी क्यों रखते हो
अंत मे बस खड़ा रह जाता हूँ इन पर्वतों पे और बस यूँही सोचता हूँ मैं
कि आख़िर कब घर वापिस जा पाउँगा मैं……
 

चिट्ठिया संदेश ले आती हैं
सबकी खोज खबर दे जाती हैं
कहने को तो महज़ स्याही से भरे काग़ज़ के पन्ने हैं ये
मगर ना जाने क्यों हर बार एक अलग सी मिठास दिल मे घोल जाते हैं ये
फिर बस यादों से भरकर इन पर्वतों पे खड़ा कभी यूँही सोचता हूँ मैं
कि आख़िर कब घर वापिस जा पाउँगा मैं….
 

बस यूँही कई दिवाली बीत जाती हैं
कई रमज़ान कट जाते हैं
और मैं यहीं पे खड़ा रहता हूँ
माँ के हाथ की सेवई और मिठाई मुश्किल से नसीब कर पाता हूँ
खैर दिल को सुकून मिलता है
जब सुनता हूँ कि मेरा देश चैन से सोता है
फिर कभी इन पर्वतों पे खड़ा हो के यूँही सोचता हूँ मैं
कि आख़िर कब घर वापिस जा पाउँगा मैं……
 

सरहद पे लेता हूँ दुश्मनो की गोली सीने पे तो दर्द होता है
मगर वही सीना गर्व से भर जाता है जब सड़क पे कोई बच्चा छाती तान के सल्यूट करता है
माना कि रोज़ ना नसीब कर पता हूँ माँ का पुचकारना
बेटी की शकल और बीवी का दुलार हाँ इनसे भी ना होता हूँ रूबरू रोज़ाना
पर अब गम नही रहता है दिल मैं
सब भूल जाता हूँ जब बंदूक चलती है मेरी अपने देश की हिफ़ाज़त मे
बस अब तो इन पर्वतों पे खड़ा होकर सोचता हूँ मैं
कि अगर अब घर न भी जा पाउँगा मैं
तो भी खुशी-खुशी अपने देश के लिए कुर्बान होके अपने देश की मिट्टी मे समा जाउँगा मैं...
अपने देश की मिट्टी मे समा जाउँगा मैं....
बस समा जाउँगा मैं….

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