जा गरीब! दो रोटी तोड़ ले! शुभम त्रिपाठी
जा गरीब! दो रोटी तोड़ ले!
शुभम त्रिपाठीजा गरीब!
दो रोटी तोड़ ले!
जो उगे तरुवर-अनन्त में!
हैं जो दूर बड़े और,
खड़े क्षितिज पर!
बेहद कठिन रास्ता वहाँ का।
या तू यह क्षुधा छोड़ दे!
या मेरा यह भ्रम तोड़ दे!
जा गरीब!
दो रोटी तोड़ ले!
तू रह भूखा,
भूखा मर जा!
या खा ले जो भी,
मिले रूखा-सूखा।
इन बातों का,
फर्क किसे पड़ता है?
लोगों की यह असंवेदना,
मझे बहुत 'अखरता' है।
भ्रम मेरा जो तोड़ सका,
है गरीब वो मज़दूर;
वो मजबूर,
रोटी नहीं, फाँंकता धूर।
वह दिन भर पत्थर तोड़ता है।
अपनों का पेट पालने को वह,
कंधों पर अपने,
ईंटों के घर ढोता है।
दो वक्त की दो रोटी भी,
उसके लिए पर्याप्त है।
काम वो करता दिन भर,
हाथ नहीं फैलाता है,
और रातों में वह,
आत्म-सम्मान से सोता है।
इस गरीब की दो रोटी भी,
बँट जाती है थाली में।
कुछ हिस्सा बीवी को,
तो कुछ बच्चों में जाता है।
बस ऐसे ही उस गरीब का,
पेट भर जाता है।
देखकर उसका यह तप-योग,
भ्रम मेरा टूटा है।
मेरे अहंकार का कच्चा घड़ा,
उसके आत्म-सम्मान से फूटा है।
अपने विचार साझा करें
प्रस्तुत कविता, "जा गरीब! दो रोटी तोड़ ले!" कवि की विकृत मानसिकता को दर्शाता है, जो किसी भी कार्य को करने से पूर्व ही कठिनाइयों को देख कर हार मान लेता है, और उसका यह भ्रम भी है, कि ऐसा कार्य मुमकिन नहीं। परंतु, एक गरीब मज़दूर के कठोर जीवन को देखकर उसका भ्रम टूट जाता है और उसे कर्म-ज्ञान प्राप्त होता है।