कर्त्तव्यपथ  Saurabh Awasthi

कर्त्तव्यपथ

Saurabh Awasthi

मैं कल चलने वाला था घर से,
सपनों के नील गगन में,
नए-नए से सुन्दर सपने,
अब खिलते थे मेरे मन में।
सोचा था अब पंख फैलाए,
उड़ता ही जाऊँगा,
पैसे होंगे, खुशियाँ होंगी,
पापा का हाथ बटाऊँगा।
हुई रात्रि, सब सोने वाले,
मात-पिता चिन्ताएँ पाले,
भाव-विभोर मैं सकुचाता सा,
उनके कमरे में आया,
मेरे विषय में चिंतित तत्पर,
मेरे भगवानों को पाया।
मुझे देख दोनों ने
ऐसे धारण मौन किया,
घबरा जाऊँगा इस चिंता से,
अपने मनोभावो को प्रकट न किया।
वो दोनों फिर मुझसे मिलकर
हल्की-फुल्की बातें ही बोले,
थोड़ी देर में माता ने फिर
चक्षु-अश्रु थे खोले।
जितना बन पड़ता था पापा ने
पैसा हाथ थमाया,
न उतर सके जो जीवन भर में,
हथेली पर माँ ने, वो सिक्कों का भार चढ़ाया।
बना रहा मैं शब्दहीन,
कुछ भी मैं वहाँ पर कह न सका,
गला फाड़ता, ज़ोरों से रोता,
मेरा अंतर्मन चुप रह न सका।
निकट बैठ उनके चरणों के,
मैंने चरण दबाए,
स्नेह-विभोर हुए पापा ने
बाल मेरे सहलाये,
बोले बेटा, जाने से पहले
बात मेरी तू सुनता जा,
मेरे जीवन के अनुभव से
बस फूल ही तू चुनता जा।
जीवन का ये सफ़र है लम्बा,
रुक-रुक कर ही चलना है,
छोटे लोग मिलेंगे जब भी,
झुक-झुक कर ही चलना है।
बात हो जब भी स्वाभिमान की,
सीना ताने चलना,
फंस जाओ जो दुःख के कीचड़ में,
चलना, किसी बहाने चलना।
जब तक जीवित मैं हूँ
चिंता बिल्कुल न करने दूँगा,
पिता तुम्हारा पालक हूँ मैं,
आँखों में नीर न भरने दूँगा।
धरा तुम्हारी माता है
मैं आसमान हूँ तेरा,
जियोगे तुम सदैव ही निर्भय,
ये वरदान है मेरा।
माता तो माता थी,
अंखियों से, आशीर्वाद फिर आया,
हाथ फेर कर पीठ पे मेरी
अश्रु एक टपकाया।
एकबार दोनों को देखा,
खिन्न हुआ फिर मन में,
मानो सारे सपने मुरझाए हों
जैसे नील गगन में।
गाड़ी थी कल चार बजे की,
तड़के सुबह ही निकलना था,
सामने था कर्त्तव्य पथ,
तो चलना ही बस चलना था।

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