बंदिशें आज़ाद हैं  Neha Singh

बंदिशें आज़ाद हैं

Neha Singh

जब थोड़े से खुले दरवाजे से, खुले आसमान को देखा करती है;
एक अबला के दिल से भी यही आवाज़ आया करती है,
काश इस परिंदे के जैसे उड़ पाती वह भी दूर गगन में,
मगर बचपन से उन्हें यही सिखाया गया,
"दहलीज के अंदर रहना ही मर्यादा है”।
ऐसा पाठ पढ़ाया है।
 

जब से वह इस धरती पर अपना बसेरा बनाई है,
अपने हर सपनों और खुशियों को खुद में दबाना सीखी है,
समाज ने उसे यही सिखाया है,
''तुम लड़की हो'' और दहलीज के अंदर रहना ही तेरा मर्यादा है
ऐसा पाठ पढ़ाया है।
 

मगर अब उम्मीद जागी है, कि वक्त बदलने वाला है,
सदियों से साड़ी में लिपटी औरत, चारदीवारी में बंद मजबूर औरत,
कर रही ग्रहण विदेशों में शिक्षा है।
अमिट छाप छोड़ रही अपने नाम की,
हो चाहे वह भू और नभ, मिल रहा समान अवसर उन्हें भी।
कर रही सपनों को पूरा वह देख रही है एक ख्वाब,
बोल रही खुद से वह
"हूँ आज़ाद आज मैं भी, तोड़ कर सारी बंदिशें,
उड़ रही हूँ दूर गगन में भरकर एक नई उमंग
कर रही सपनों को पूरा खिल रहा मेरा चमन "।

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