महिला अत्याचारों पर जालिमों का पर्दा संजय साहू
महिला अत्याचारों पर जालिमों का पर्दा
संजय साहूमिल गई मिट्टी में झड़ कर,नन्ही प्यारी कली थी मैं,
अपने पिता की परी थी, लाड प्यार में पली थी मैं।
हर पल मस्ती में रहती, खुशियों से आनंदित रहती,
न कल की कोई चिंता रहती, न कोई कष्ट मैं सहती।
रानी सा रखते थे पापा, हर मांग पूरी करते थे पापा,
माँ भी कहाँ पीछे रहती, काम नही छूने देती थी।।
वो फिर दिन आया, विदा लेने का वक्त ले आया,
प्यार दुलार गया कोसों दूर, प्रताड़ित सा अब जीवन पाया।
करती हूँ अब सबकी चिन्ता मेरी नहीं कोई है सुनता,
अब मेरी माँगों की अर्जी कोई ध्यान नहीं है धरता।।
मर-मर दिन रात काम मैं करती नौकरानी सी है दुर्दशा,
पापा मैं तुम्हारी रानी थी मन मैं है बस यही प्रशंसा।
बात-बात पर ताना सहती गाली -गलोच की भाषा सुनती,
लात और मुक्के खा-खा कर बस मैं सब की सेवा करती।।
अब तो हार रही हूँ पापा, सब कुछ वार रही हूँ पापा,
सांसें ये मेरी अंतिम हैं, अब खुद को मार रही हूँ पापा।
मैं तो हिम्मत वाली थी फाँसी नहीं लगाने वाली थी,
जालिमों ने अत्याचार की रस्सी गले में डाली थी।।
खुदकुशी का नाम दे मेरी मौत पर पर्दा डाल दिया,
मेरे सारे अरमानों को जीते-जीते मार दिया।
मिल गई मिट्टी में झड़-कर, नन्ही प्यारी कली थी मैं।
अपने पिता की परी थी, लाड प्यार में पली थी मैं ।।
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यह कविता समाज में प्रतिदिन हो रहे महिला अत्याचारों पर ढँके परदे को उठाने का एक प्रयास है, कुछ जालिम लोग महिलाओं पर इतने अत्याचार करते है कि उनको किसी के प्राण लेने में भी कोई दर्द नहीं होता और अपना दोष वो उस बेबस लाचार महिला के ऊपर मढ़कर खुदखुशी का नाम दे देते हैं। ऐसे लोग ये भूल जाते हैं कि जो उनकी पत्नी है वो किसी की बेटी, किसी की बहन,और किसी की माँ भी है। उन्ही बहनों की आवाज को समाज में घटित एक सत्य घटना को इस कविता के माध्यम से समाज तक पहुँचाने का एक प्रयास है।