स्वप्न-दहन Kumar Sonal
स्वप्न-दहन
Kumar Sonalहोलिका-दहन की लपटें देख, आज माँ तेरी याद आई है,
मैं सो जाऊँ छोड़, सारी रस्में, दिल से फरियाद आयी है।
''भैया नहीं जी लग रहा है अब'', ये कहती मुझसे बहन है,
मैं ये मानूँ कैसे, कि खुशियों का, ये पर्व होलिका-दहन है।
आज आँखों तक वो आई है, दिल में जज्बात जो कल तक था,
उतर गया चोला मुस्कान का, होंठो पर जो मेरे अब तक था।
खुशियाँ बैठी इक ओर हैं, और गम बैठें इक ओर हैं,
जमाना डूबा है जश्न में, और हम बैठें इक ओर हैं।
जश्न करो, सब दुःख भुला, कहता जमाना मुझसे है,
पर नहीं समझता कोई ये, मेरा जश्न सारा तुझसे है।
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ये कविता होलिका दहन के अवसर पर लिखी गयी है। यह कविता उस युवक की कहानी है, जिसकी माँ का कुछ दिनों पहले देहांत हो चुका है। होलिका दहन उसे उसकी माँ की जलती चिता की याद दिला जाती है, जो कि उसके दिल, उसके हसरत, उसके जश्न एवं उसकी खुशियों की बुनियादें हिला देती है। अब वह घर में अपनी बहनों और पिता के साथ रहता है। ये उसके दर्द, उसके टीस को इत्तिला करती है।