यूँ गुज़र रही है ज़िंदगी Prafulla Paarijat Pathak
यूँ गुज़र रही है ज़िंदगी
Prafulla Paarijat Pathakयूँ गुज़र रही है ज़िंदगी तो सितम क्या है,
चेहरे बदल गए वक़्त दर वक़्त तो बरहम क्या है।
अपने हाथों से बुझा कर अक़ीदों के दीये,
गलतफहमियों में बिसरे तो शरम क्या है।
मायूसियों की खाक जमाकर बैठे हैं,
बस्तियाँ ढूंढ रहे वीरानियों में, बिना-ए-मोहकम क्या है।
एक-एक हाथ में लेकर हज़ार आईने,
पूछते हैं खुब्तगी का आलम क्या है।
नया सफर है चिराग गुल कर दो,
भटक गए भी किसी हसीं ख्वाब में तो गम क्या है।