दुल्हन  Puneet Kumar

दुल्हन

Puneet Kumar

चाँदनी सी वो रात घनी थी,
तारों की बारात सजी थी,
दूल्हा बनकर मैं बैठा था,
दुल्हन सी कुछ वो सजी थी।
 

न जाने वो कौन सी सुहानी घड़ी थी,
जब मेरे खाबों की मल्लिका मेरी दुल्हन बानी थी,
ख़ुशी तो अब मेरे द्वारे खड़ी थी,
दुल्हन सी कुछ वो सजी थी।
 

सितारों से उसकी माँग सजाई,
लाज शरम के वो घबराई,
सुर्ख लाल जोड़े में क्या खूब खड़ी थी,
दुल्हन सी कुछ वो सजी थी।
 

मंगल सूत्र अब बाँधा गले में,
हो गई मेरी ये कहा सभी ने,
रिमझिम फूलों की क्या झड़ी लगी थी,
दुल्हन सी कुछ वो सजी थी।
 

मेरी दुल्हन को देख चाँदनी शरमा गई,
तारों की वो खूबसूरती उसकी आँखों में आ गई,
बिदाई के उन आंसुओं ने इक कहानी सी गढ़ी थी,
कि दुल्हन सी कुछ वो सजी थी।
 

मेरे दिल ने वो रात बार-बार याद की थी,
जब तारों की बारात सजी थी,
और दूल्हा बनकर मैं बैठा था,
दुल्हन सी कुछ वो सजी थी,
दुल्हन सी कुछ वो सजी थी।

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