सूर्यपुत्र महाप्रतापी सर्वदानी कर्ण  ABHISHEK TIWARI

सूर्यपुत्र महाप्रतापी सर्वदानी कर्ण

ABHISHEK TIWARI

एक सवाल, कर्ण श्रेष्ठ की अर्जुन श्रेष्ठ?
मर्यादा तो कहती है वही श्रेष्ठ जो है ज्येष्ठ,
किन्तु कुरुक्षेत्र में मर्यादा का चिह्न कहाँ था,
युद्ध में छोटा बड़े से भिन्न कहाँ था।
 

कैसे एक कौन्तेय दूसरे का काल बन खड़ा है,
राधेय जानता है अर्जुन अनुज है फिर भी युद्ध को यूँ अड़ा है।
क्या दुर्योधन ऋण ही उसकी मात्र एक विवशता है,
या विधि का हर विधान उसे देख यूँ ही हँसता है।
 

कुण्डल कवच और दिव्यास्त्र जिस वीर की शोभा हैं,
यह संभव कैसे कि ब्रह्मा ने मृत्यु का भाला इसी को घोपा है।
क्या कारण है क्यों सर्वश्रेठ, महावीर अंगराज कर्ण युद्ध हार गया,
धर्म अपना हर जगह निभाया, फिर क्यों ना युद्ध के उस पार गया।
 

समझे तो अपना जीवन उसका आप कृष्ण को ही दान है,
इसलिए कर्ण महानों में सर्वमहान है।
ऐसे भी पल हैं रण के क्षेत्र में,
जहाँ कर्ण दबोचे हैं अर्जुन प्राण स्वयं के नेत्र में।
 

पर दान किया हर बार कर्ण ने,
धर्म का मान किया हर बार कर्ण ने।
पर यह तो कुतर्क है कि यह होता तो वह होता
वह होता तो यह होता।
जब कुरक्षेत्र में धर्म की जीत हुई,
किस प्रयोजन हेतु भविष्य में कलियुग की भीत हुई।
 

जो होना है वह हो चुका है,
कुरुक्षेत्र कर्ण को पूर्व ही खो चूका है।
हे, अर्जुन जा तू युद्ध कर,
जीवन को अधर्म से शुद्ध कर,
ना पृथक तेरा कोई धर्म है, ना पृथक मेरा कोई धर्म है,
जो अनंत काल जीवित रहे वैसा परमार्थ ही सबका धर्म है।

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