सपनों को घुलते देखा है aniket sachan
सपनों को घुलते देखा है
aniket sachanसदियों से गीली आँखों में
सपनों को घुलते देखा है,
युगों-युगों की काल निशाएँ
जाग-जाग हैं काटी जिनने,
उन पलकों की पावस लट पे
नींदों को घिरते देखा है,
सदियों से गीली आँखों में,
सपनो को घुलते देखा है।
है कथित जब सारे जग में,
है व्यथित जब सारे जग में,
हो क्यों माया से ओत-प्रोत
बस अपनी सुनते जाते हैं,
मैंने घोर अरण्य में भी
साँसों की चंचलता वाले,
मदमस्त हाथियों के झुंडों को,
खगों की कर्कश काको से
स्व-पथ से मुड़ते देखा है,
सदियों से गीली आँखों में,
सपनों को घुलते देखा है।
लाख हों चाहे कहीं भी
युद्धों की मालाएँ उर पर,
अपने स्वप्नों की नीवों पर
कुछ कार्य अनोखा करते हैं,
जो इस धरती से साँसों को
बिन विचलित कर ब्रह्मांड के
हर जीव के मन में बुनकर
भी अपने चेतन को रखता है,
वरना मैंने तो कहीं-कहीं
सबकुछ पाने के बाद भी,
प्राणी को अपने स्वार्थ में,
दूजे के हक को पाकर भी
स्व मस्तक की असुरों वाली
काली जर्जर सी प्रवृत्ति को,
सकल शोक विकराल निशा
में पकवान खिलाते देखा है,
सदियों से गीली आँखों में,
सपनों को घुलते देखा है।