प्रश्न कुछ विचित्र से चित्त में हैं झूलते ARCHIT SHARMA
प्रश्न कुछ विचित्र से चित्त में हैं झूलते
ARCHIT SHARMAप्रश्न कुछ विचित्र से चित्त में हैं झूलते,
हम जन्मते भला क्यों, क्यों मृत्यु को भूलते,
क्यों भूलकर सत्य को बन रहे थे अमर,
क्यों धूल में जा मिले जो स्वयं धूल थे।
था बहुत बाहुबल, थे बहुत शूरवीर,
ठाठ थे बड़े-बड़े, बड़े महल के अमीर,
अंततः मृत्यु के सत्य से जब मिले,
उड़ रही राख अब धूल बन रहा शरीर।
आभूषणों से भरी तिजोरियाँ खोलते,
बैठ कर सेज पर रोज स्वर्ण तोलते,
जोड़ न पाए वे एक कर्म पुण्य का,
जोड़ते रह गए लाख धन दौलतें।
हैसियत बहुत बड़ी और कुल से कुलीन,
पर लड़ रहे भाई से चाहिए घर जमीन,
अंत में मौन थे और देह शांत-शांत,
तीन हाथ थी जगह पंच तत्व में विलीन।
मूछ पर ताव था नगर के नजीब थे,
उम्र ढल गई अब हाल हैं अजीब से,
आँख बंद हो गई सांस भी मंद-मंद,
और मृत्यु घूरती सामने करीब से।
धमनियों में बह रहा था रक्त जिनके बन अनल,
आवेग में थी फड़फड़ाती वो भुजाएँ अब शिथिल,
पर जान कर भी सत्य को क्यों नहीं स्वीकारते,
कि कोई भी जीवित न बचता रंक, राजा, वीर, बुज़दिल।
बच न पाए वे सिकंदर भू पर चले थे शक्ति लेकर,
बुझ गए वो सब दिए जो भी जले थे दीप्ति लेकर,
फिर भला क्यों ये देह लेकर सब अहं में फूलते,
और बनकर मूर्ख वे ही अटल सत्य को भूलते,
प्रश्न कुछ विचित्र से चित्त में हैं झूलते।
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सभी को भलीभांति ज्ञात होता है कि मृत्यु एक अटल सत्य है, किसी न किसी दिन शरीर रूपी कवच को त्यागना ही पड़ता है। परन्तु सब जानते हुए भी हम अल्पकालिक सुखों में, लालच में और कई आडम्बरों में अपना समग्र जीवन नष्ट कर देते हैं। फिर अंतरात्मा से प्रश्न उठता है कि ये सब क्यों था, क्यों मूर्ख बनकर रहे, किसके लिए ये धन संचय किया, स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करके भी क्या प्राप्त हुआ एवं शक्तिशाली बने रहने का भी क्या निष्कर्ष निकला। मृत्यु ने तो कभी किसी के साथ पक्षपात नहीं किया। विद्वान-पापी, नर-नारी, निर्धन-धनवान, राजा-रंक में कोई भी भेद न करते हुए सभी को अपना आलिंगन दिया।