गुब्बारे...हर खुशी का अलग पैमाना Shikha Vivek Upadhyay
गुब्बारे...हर खुशी का अलग पैमाना
Shikha Vivek Upadhyayवो गुब्बारे लिए जा रही थी,
कोई तो ले लो गुब्बारे बस बार-बार यही गा रही थी।
एक बड़े आदमी ने सारे गुब्बारे खरीद ही लिए,
बदले में उसे 5 रुपए ज्यादा ही दिए,
जा खुश रह गुब्बारे वाली
आज मेरे बेटे का जन्मदिन है,
यह कह कर वो साहब निकल गए।
गुब्बारे वाली बस उस जाती हुई गाड़ी को निहार रही थी,
पलकों से गिरते हुए आँसुओं को रोक रही थी,
और मन ही मन ऊपर वाले से सवाल कर रही थी,
कितना अलग है तेरा इंसाफ ऐ ऊपर वाले,
जिस गुब्बारे से अमीरों के बच्चे अपना जश्न मानते,
उनसे मिले पैसों से मैं अपने लाल को एक वक़्त की रोटी दूँगी।
जनमदिन तो आज मेरे लाल का भी है,
बच्चों जैसे सतरंगी ख्वाब तो उसके दिल के भी हैं,
पर उसका क्या कोई कसूर है?
बेबस माँ का जो बेटा है
तो ख्वाबों के लिए दिल में जगह नहीं।
अजीब ये जीवन के नियम हैं,
सारा खेल उस गुब्बारे का है,
गरीब के घर शाम का दीया जलाता है,
और अमीरों के घर की चकाचौंध रोशनी में चार चाँद लगाता है।