इस सुबह को फिर शाम होते देखा Amit Sati
इस सुबह को फिर शाम होते देखा
Amit Satiइस सुबह को फिर शाम होते देखा,
इस रात जगे को फिर नाकाम होते देखा।
ज़िन्दगी को यूँ ही तमाम होते देखा,
लेकिन ख्वाबों को फिर से मकाम होते देखा।
इन हाथों में फिर से कोई जाम होते देखा,
इन लफ़्ज़ों में फिर उनका नाम होते देखा।
कहीं अपना बखान होते देखा,
कहीं पर बदनाम होते देखा।
फिर खुद को परेशां होते देखा,
पहचान को फिर गुमनाम होते देखा।
अरमानों को फिर प्रधान होते देखा,
आसमान में एक ऐलान होते देखा।
इस कलम को फिर उनके नाम होते देखा,
उनके ज़र्रे-ज़र्रे को सलाम होते देखा।
आख़िरकार जब देखी उनकी ऑंखें “सती”,
तो मन को चार धाम होते देखा।