दहशत  Vibha Awasthi

दहशत

Vibha Awasthi

कयामत के दिन
जब एक बार फिर से मिलूँगी
तुमसे अकेले में,
सोचती हूँ क्या कहूँगी,
क्योंकि उस दिन दहशत
न होगी हमारे बीच दोबारा,
"खो न दूँ कहीं" मन ना होगा
इस खौफ का मारा।
 

ये दुनिया उस पल के बाद
मिट्टी हो जाएगी
या किस्से होंगे पानी के,
सारे रिश्ते होगें कैद मुर्दा पल में
बिना किसी कहानी के।
 

फिर मैं पूछूँगी,
तेरी काया मेरी काया
दोनों फना हो रहीं हैं
आज इस आग में,
या फिर इस पानी में,
तो बताओ तुम मुझसे मजबूत कैसे हो?
मै तुमसे मजबूर कैसे हूँ?
 

दरियाफ्त करूँगी वो पैमाना
जिसमे मैं सदियों से कमतर
और तुम हमेशा बेहतर निकले।
मै पूछूँगी खुद से,
मैंने और मेरी नस्लों ने तुझसे
आज तक ये क्यों नहीं पूछा,
इस दहशत ने मुझे दरख्त किया था,
जीने की चाह ने मेरे वजूद पर अपना तख्त किया था।
 

ये तबाही मुझे बड़ी रास आई,
काठ के जिस्म में चलो साँस आई,
ये आज़ाद हवा जो इस पल मेरा मुकद्दर है,
मेरे बदन के साथ मेरी रूह हमबिस्तर है।

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