मैं सबसे पहले खुदकी सगी  अदिति शर्मा

मैं सबसे पहले खुदकी सगी

अदिति शर्मा

क्या ज़लील होना ज़िन्दगी मालिक,
अगर हाँ तो मौत मन्ज़ूर मुझे,
जीवन को झेलना होगा
चाहे ना हो कोई कसूर भले।
 

कौन अपना कौन पराया बोलो,
यहाँ हर चेहरा है दोगला,
बहुत नाज़ करते सब खुद पर,
इनका हर दावा है खोखला।
 

शैतान से मिली जिस रोज़ मैं,
उस वक़्त ये एहसास हुआ,
कोई नहीं है पास मेरे,
अकेली हूँ मुझे विश्वास हुआ।
 

मै निहत्थी थी उस जंग में,
उसकी तो ज़बान भी तलवार थी,
मैं पहने खड़ी थी सच का कवच,
मेरी हिम्मत ही मेरा औज़ार थी।
 

वो लड़ता रहा, वार करता रहा,
कभी शब्दों से कभी हथियार से,
थक गई थी मैं लड़ते-लड़ते,
मदद माँगी मैंने अपने परिवार से।
 

गिरी थी बंजर ज़मीन पर,
हिम्मत जुटा हुई फिर खड़ी,
मेरी रूह रही थी चीख तब,
जब मेरे अपनों से ही मुझे मार पड़ी।
 

तू लड़ मत सहना सीख जा,
हमारे बारे मे सोच ज़रा,
अब तो चुप रहना सीख जा,
अपने गुस्से पर रोक लगा।
 

हँस रहा था शैतान मुझपर,
अब समझी क्यों उसको गुरूर है,
वो जानता है रिश्ते जंजीर हैं,
वो जानता है ये लड़की मजबूर है।
 

मैं कुछ भी सही लाचार नहीं,
मैं रिश्तों की नहीं खुदकी हूँ सगी,
धकेला हर खोखला नाता मैंने,
मैने गर्दन पकड़ी शैतान की,
कभी मेरा वजूद उसने छीना था,
आज मैंने साँसें जकड़ी हैवान की।
 

चीरा उसने मेरा ज़र्रा-ज़र्रा,
अब उसका घमंड आँसुओं में बरसेगा,
आग में जलेगा हर दिन वो,
वो पानी को भी तरसेगा।

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