उड़ना मुझको पंख खोलकर ARCHIT SHARMA
उड़ना मुझको पंख खोलकर
ARCHIT SHARMAनहीं किसी से मुझे शत्रुता
नहीं किसी से ज्यादा मोह,
दी हों भले असंख्य वेदना
नहीं चाहता फिर भी द्रोह।
मूल्यों के पथ पर नहीं बिकूँगा
देदो चाहे स्वर्ण तोलकर,
मैं तो हूँ आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।
था कभी बंधा मैं परिपाटी में
किए बहुत मैंने भी अनुनय,
अपनेपन का ढोंग रचाते
लोग मिले मुझको भी कतिपय।
ठगा गया मैं इन अपनों से
देखा उनका स्वार्थ टटोलकर,
मैं तो अब आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।
नहीं किसी से कोई आशा
नहीं किसी का चाहूँ साथ,
उनपर भी ईश्वर दया करे
जिसने किए घात पर घात।
अब आघातों की आदत मुझको
जाओ चाहे छुरा घोपकर,
मैं तो हूँ आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।
मेघ घटाएँ निलय निकेतन
सीमाएँ जिसकी अनन्त आकाश,
उस हारिल सा मुझको बनना
जिसको तिनके में विश्वास।
अपनी धुन में मगन ही रहना
सारी चिंता, व्यथा भूलकर,
मैं तो हूँ आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।
इसमें अपना सौभाग्य समझता
जो मिला मनुज जीवन उपहार,
इतनी लघु जीवन की अवधि
क्यों करूँ भला इसको बेकार।
एक दिन मृत्यु से मिलना सबको
मृत्यु न आए कभी बोलकर,
मैं तो हूँ आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।
अपने विचार साझा करें
कुछ अपनों के स्नेह रूपी कटु कवच के बंधन से परे जाकर जब आत्म अनुभूति हुई कि यह स्नेह मात्र तभी तक सीमित है जब तक आप उपयोगी हैं, आपके पतन से इनको कोई फर्क नहीं पड़ेगा, प्रगतिशीलता में आपको स्नेह रूपी गंगा से आचमन करवाएँगे। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ तथाकथित अपने, आपके विपरीत कार्य करने में कभी संकोच भी नहीं करेंगे। तात्पर्य यही है कि इनको महत्व न देकर एक आज़ाद परिंदे की भांति मगन होकर वही करें जिससे आत्म शांति मिले।