पूछ रहा मुझसे स्वदेश !  कवि आलोक पाण्डेय

पूछ रहा मुझसे स्वदेश !

कवि आलोक पाण्डेय

पूछ रहा मुझसे हिमालय,
पूछ रहा वैभव अशेष,
पूछ रहा क्रांत गौरव भारत का,
पूछ रहा तपा भग्नावशेष!
 

अनंत निधियाँ कहाँ गईं,
क्यों आज जल रहा तपोभूमि अवशेष;
कैसे लुटी महान सभ्यता प्राचीन,
क्यों लुप्तप्राय वीरोचित मंगल उपदेश।
 

कितनी कलियों का अन्त हुआ भयावह,
कितनी द्रोपदियों के खुले केश,
बता कवि! कितनी मणियाँ लुटी,
कितनों के लुटे संसृति-चीर विशेष।
 

चढ़ तुंग शैल शिखरों से देख!
नहीं सौंदर्य बोध ,विघटन के विविध क्लेश;
कहाँ विस्मृत धधकता स्फुलिंग दुर्धुर्ष,
कहाँ कुपित काल विकराल शेष।
 

ज्ञान-विज्ञान अनुसंधान कहाँ गए,
कहाँ लुप्त-विलीन अरूण ललाट श्लेष,
गंगा-यमुना-सिंधु की अमिय धार कहाँ,
उद्दाम प्रीति बलिदान लेश।
 

कहाँ गए तप-तेज दिव्य तुम्हारे,
कहाँ प्रबुद्ध विभा तलवार वेष;
कहाँ अस्त ज्योतिर्मयी अनंत शिखाएँ,
बता खंडित-वीरान कैसे हुआ स्वदेश?
 

ओ वीर-व्रती तु कहाँ छुपे हो,
पल भर भी कर ले दृगुन्मेष;
ज्वालाओं से दग्ध विकल उलझन में,
तड़प रहा प्यारा स्वदेश !

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