कब्रिस्तान Sajal Mehra
कब्रिस्तान
Sajal Mehraयहाँ से गुज़रना तो थोड़ा ध्यान रखना,
पाँवों को हौले-हौले रखना,
यहाँ कुछ रूहें सुकून से सो रही हैं,
करवट लेते वक़्त आवाज़ आए तुम्हें
तो समझ लेना एक सपना बुन रही हैं।
जब ज़िंदा थे तो ये सब हुंकराज थे,
अब जान क्या निकाल ली सीने से,
सब मौन पड़े हैं बरसों से।
अब नहीं मानते ये मुस्लमान
और ईसाई की दूरियों को,
कुछ साल पहले क़त्ल किये थे
एक दूसरे के हिवरा में घुस के।
बरसों से लेटे हैं यहाँ,
अक्सर शाम को जलसे में मिल जाते हैं,
अब उन लकीरों को देखके हँसते हैं
जिनके लिए कभी ज़िन्दगी की गिरफ्त छोड़ी थी।
तारीखों को पढ़ो तो
हर के ऊपर कुछ खून लगा है,
घर का पता ढूँढो तो
सब पे सिर्फ मज़हब दिखता है।
चादरों में ऐसे लिपटे हैं मानो काफी थके हुए हों,
सोने दो इनको ये रूहें बहुत नेक लगती हैं।
कल कुछ लोग नए लिबास में दिखेंगे तुमको,
इनकी मज़ारें बहुत नई हैं यहाँ,
कुछ बरस बाद इनके लिबास नहीं बदलेगा कोई,
कुछ बरस बाद इन्हें याद नहीं करेगा कोई।
वो जो दूर धूल खाती मज़ार देख रहे हो,
वो सबसे पुरानी है यहाँ,
मुखिया है इनकी,
उम्र ९ महीने,
माँ की कोख में।
कब्रिस्तान से गुज़रो तो आहिस्ता चलना,
ये रूहें सुकून से सो रही हैं अब यहाँ।