फिसलती क्यों जा रही है ज़िन्दगी JASPAL SINGH
फिसलती क्यों जा रही है ज़िन्दगी
JASPAL SINGHकभी इस पार कभी उस पार निकलती क्यों जा रही है ज़िन्दगी,
मेरे हाथों से फिसलती क्यों जा रही है ज़िन्दगी।
लाखों किस्मत की लकीरें हैं पर मेरे हाथों में क्यों नहीं,
रंग दुनिया में हजारों हैं पर मेरी आँखों में क्यों नहीं,
फिर भी हर मोड़ पे रंग बदलती क्यों जा रही है ज़िन्दगी,
मेरे हाथों से फिसलती क्यों जा रही है ज़िन्दगी।
चाँद दिखता है आसमान में पर चाँदनी रातें क्यों नहीं,
हर तरफ दिन से उजाले हैं पर नज़र आते क्यों नहीं,
अंधेरों ही अंधेरों में सिमटती क्यों जा रही है ज़िन्दगी,
मेरे हाथों से फिसलती क्यों जा रही है ज़िन्दगी।
और तपने दो इस जमीं को अभी मुझे होश क्यों है,
आग उगलने दो आसमान को सूरज खामोश क्यों है,
धधकती आग है फिर भी सिहरती क्यों जा रही है ज़िन्दगी,
मेरे हाथों से फिसलती क्यों जा रही है ज़िन्दगी।
हर गली मंदिर और मस्जिद हैं खुदा फिर भी क्यों नहीं,
अगर हर दिल उसका घर है तो सबके दिल में क्यों नहीं,
फिर भी उस खुदा की बदौलत संभल क्यों पा रही है ज़िन्दगी,
मेरे हाथों से फिसलती क्यों जा रही है ज़िन्दगी।