बचपन  rahil prakashbhai kotecha

बचपन

rahil prakashbhai kotecha

बचपन को याद करके तो बहुत से ख्याल आते हैं,
और कलम से पन्ने पर लिखते ही वह कविता बन जाते हैं।
 

वो रोते वक्त माता कराती चुप,
और वो शाम को आँगन की भीनी-भीनी धूप।
 

कभी-कभी वो शाम को खेल कर थक कर आते,
और अपना सर माता की गोद में रखकर हैं सो जाते।
 

वो मीठी-मीठी चाँदनी और माँ की लोरी,
लगती थी दुनिया में बस यही कमज़ोरी।
 

वो हर बार की ज़िद फिर ज़ोर से रोना,
यह करके ही तो पाते थे हर हफ्ते नया खिलौना।
 

न बॉस का डर था,
न ज़िन्दगी में नारी न नर था,
छोटा सा प्यारा सा जिगर था,
दिल तो भैया मासूमियत का समंदर था।
 

वो पिता रोज़ नए खिलोने लाते थे,
और रोज़ रात को बाहर घुमाने ले जाते थे।
 

बचपन की तो यारों अनगिनत बातें हैं,
याद करते हैं दोस्तो, आँसू निकल आते हैं।

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