यथार्थ Pawnesh dixit
यथार्थ
Pawnesh dixitकलाकार का सपना,
समाजसेवी का धरना,
पार्टियों का लड़ना,
सब बंद है एक विचित्र कोलाहल में।
जिसमें जीवन भौंरा बनकर गुनगुनाता है,
सुनकर पकड़ना जो चाहे इसे
तितलियाँ उड़ती हुई दिखाई देती हैं,
बादल गरजते दिखाई देते हैं,
सुनहरी धूप एकदम से निकलती आती है
और आँखें पल में ठण्डी हो जाती हैं।
अचानक घर की याद आती है,
रम जाता है, खो जाता है खुद के जीवन में,
चहारदीवारी में चार अपनों की आवाजें आती हैं,
चुपके से सोने की तैयारी में वह जुट जाता है।
अब सोता हुआ भौंरा धीरे-धीरे उठ जाता है,
दोनों जीवन अपने-अपने रास्तों पर चल पड़ते हैं,
एक गुनगुनाने के लिए दूसरा रेंगने के लिए,
सह आस्तित्व को चुनौती देते हुए।
अपने विचार साझा करें
प्रस्तुत कविता मेरी मौलिक रचना है। ये कविता हमारे आसपास घटित हो रहे दो जीवनों, एक मध्यम वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग (बौद्धिक क्षमता में) में तुलनात्मक पुट उत्पन्न करती है। साथ ही साथ आज के जागरूक आम आदमी या जिसे निम्न माध्यम वर्ग कहा है वह उच्च वर्ग के जीवन सतरंगी आयामों को समझ कर भी नासमझ बना रहता है बस केवल अपनों के आस्तित्व के वास्ते उनकी मूलभूत आवशयकताओं के वास्ते।