बेदाग़ चाँद  Alok Kumar Shukla

बेदाग़ चाँद

Alok Kumar Shukla

मैं मेरी महफ़िलो में यू ही नज़्में गुनगुनाता रहा,
तू है वो बेदाग़ चाँद जिसके क़िस्से गाता रहा,
सुर्ख़ चन्दन की डली तू, मैं साज़ महकाता रहा,
तू है वो बेदाग़ चाँद जिसके क़िस्से गाता रहा।
 

लफ़्ज़ की ओट में तू करवटें बदल रहा,
मैं कुछ भी बोलूँ बस तू ही तू निकल रहा,
इश्क़-ए-जुनून की साज़िश से क्या शिकवा करूँ,
तेरी अदा से ही अपनी ग़ज़लों का कारोबार चल रहा।
 

मैं तेरी मासूमियत को बयाँ करूँ,तो दीदार-ए लफ़्ज़ भारी हैं,
आने की ख़बर से तेरे, बेचैनी की अपनी ही एक अलग ख़ुमारी है,
अब सामने बैठा है तू आँखो से साज़िश करने को,
कौन है पागल वो जो कहता है, जहाँ में जन्नत ही सबसे प्यारी है,
आने की ख़बर से तेरे, बेचैनी की अपनी ही एक अलग ख़ुमारी है।
 

तेरी अदा से ही अपनी ग़ज़लों का कारोबार चल रहा,
मैं कुछ भी बोलूँ बस तू ही तू निकल रहा।

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