मैं माँ और मेरा फौजी बेटा  APOORVA SINGH

मैं माँ और मेरा फौजी बेटा

APOORVA SINGH

कोख में रखा नौ महीने
खून से उसको सींचा था,
उसकी एक मुस्कुराहट पर
गुलज़ार हर बगीचा था।
 

उंगली पकड़कर सिखाया चलना
गोद में सुलाया था,
कहीं ना लगे मक्खी उसको
आँचल में छुपाया था।
 

बना के झूला साड़ी से
दिन-रात झुलाया था,
कहीं ना टूटे नींद उसकी
घंटों लोरी गाया था।
 

सपना था फौज में जाना
देश की लाज बचाना था,
कैसे भेज दूँ सरहद पर
जब एक ही मात्र सहारा था।
 

कर ली उसने अपने मन की
एक भी मेरी बात ना मानी,
जय बोलकर भारत माँ की
दुश्मनों की थी लाश बिछानी।
 

दिन ढला शाम हुई
सूरज डूबा रात हुई,
हर तरफ सन्नाटा पसरा
जैसे कोई बात हुई।
 

दीपक मेरा बुझ गया
सब कुछ मेरा लुट गया,
अंधेरा हुआ पूरे घर में
सूरज मेरा डूब गया।
 

चांद स्थिर तारे भी फीके
कलेजे की शहादत पर,
आसमां रोया जमीं भी सहमी
वतन पर मिटने वाले पर।
 

वो तो मेरा शेर था
करता सबको ढेर गया,
आया था जिस लोक से
वापस वहीं को लौट गया।
 

परिंदे लौटे घरों की ओर
पर ना आया मेरा लाल,
देखते-देखते राह की ओर
बीत गया पूरा साल।

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