इक बूँद हूँ मैं  Ragini Preet Preet

इक बूँद हूँ मैं

Ragini Preet Preet

इक बूँद हूँ मैं बादल में छिपी
जी करता है अमृत बन बरसूँ,
अधरों की सूखी प्यास बुझे
उम्मीद किसी की बन बरसूँ।
 

काले मेघों के अंतः में
मन उमड़-घुमड़ सा जाता है,
आशाओं का एक अंश बनूँ
मैं मानसून बन कर बरसूँ।
 

काला हारी या थार मरू
जलते-तपते रेगिस्तानों में,
हरियाली की शीतल आस जगे
सखियों संग ऐसे मैं बरसूँ।
 

बेजान पड़ी निर्जन आँखें
आँसू भी जिसके सूख गए,
मुरझाए खेत की फसलों संग
कृषकों की खुशिया सूख गयीं,
उन पोषक हाथों की दुआ बनूँ
उम्मीद मेघ बन कर बरसूँ।
 

मन मोर मयूरा नाच उठे
सावन की घटा बन कर बरसूँ,
प्रेमी युगलों की यादों में
मैं प्रथम बूँद बन कर बरसूँ।
 

कल तक सागर की गोद में थी
लहरों संग खेला करती थी,
ऊँची-ऊँची चट्टानों को
उफना के धकेला करती थी।
 

लहराती थी, ईठलाती थी
इतराती थी, गुर्राती थी,
लेकिन खारे पानी के सिवा
पहचान भला क्या पाती थी?
 

एक दिन किरणों से आस जगी
बन कर के वाष्प बादल से मिली,
अब इंतज़ार उस क्षण का है
जब अमृत बन कर मैं बरसूँ।

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