बुढ़िया  SHRIYANSH SRIVASTAVA

बुढ़िया

SHRIYANSH SRIVASTAVA

न जाने बुढ़िया किसका कर्ज़ उतार रही है,
अपने बाप का, अपनी करनी का
न जाने किसका?
मुझे बस इतना दिखता है कि
बुढ़िया ढो रही है।
 

वह ढो रही है एक बड़ा भार
और ढोते-ढोते वह खो चुकी है
अपनी जवानी, अपनी आमदनी
और अब घुल रहा है
शरीर भी उसका।
 

बुढ़िया मौत की तरफ कदम बढ़ा रही है,
वह प्रतिपल ज़िन्दगी को चिढ़ा रही है,
बुढ़िया को सुख नहीं दे पाए
उसके बाप, भाई, पति व बेटा
संघर्ष ने उसके जीवन को जकड़कर घसीटा।
 

बुढ़िया तपती है तपती थी
और शायद तपती रहेगी,
बुढ़िया की अंदरूनी तपन
एक दिन, चिता की आग को जलाएगी।
 

बुढ़िया मर जाएगी
पर अमर न हो पाएगी,
कोई जानता नहीं उसको
प्रचार नहीं उसका,
जवानों से ज्यादा काम
घुसकते-घुसकते करती है बुढ़िया,
पर कोई नहीं जानता
कि बुढ़िया कितने सालों से
सिर्फ पाँच घंटे सोती है।
 

यह एक बुढ़िया नहीं है
और ऐसे बुड्ढे भी बहुत हैं,
पर इनका नाम नहीं है,
और इनकी छातियाँ
इंचों में ना होकर
बातियों में गिनी जा सकती हैं।
 

सड़क पर ज़माना इनको देखता है
देखकर अनदेखा ज़रूर करता है,
वरना इनकी शक़्लें
ऐ.सी. की हवा में
हमारी शक्लें गर्म कर देंगी।
 

हम इन्हें भूल जाना अच्छा मानते हैं,
हम क्या करें? हम क्या कर ही पाएँगे?
यह बेचारे घिसते-घिसते मर ही जाएँगे,
अच्छा है किस्मत है अपनी-अपनी।
 

हम नहीं सोचते कि हम उठे
तो कई और उठेंगे,
एक भारी चीज़
अपनी जगह तो बदलेगी,
रही बात बुढ़िया की
तो वो तो है, थी और रहेगी,
वो तो अपना काम करेगी
तुम क्या करोगे?

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