सब कुछ बिकता है  मणि श्रीवास्तव 'माहा'

सब कुछ बिकता है

मणि श्रीवास्तव 'माहा'

सत्ता की कुर्सी हो या नेता का ईमान धरम,
चाहे जानें हों अपनों की, बिलकुल आती नहीं शरम,
पैसों के इस चक्रव्यूह में कहाँ कोई टिकता है,
इस अवसरवादी दुनिया में सब कुछ बिकता है।
 

इंसा को ही पंथ बनाकर सारे काम निकाले जाते,
और कौड़ियों के भावो में, हैं जमीर भी बेचे जाते,
कालचक्र के महायुद्ध में झूठ बहुत कम ही झुकता है,
इस अवसरवादी दुनिया में सब कुछ बिकता है।
 

बिकी हुई है पत्रकारिता, बिके हुए हैं तंत्र भी सारे,
बिके हुए इस लोकतंत्र में, व्यर्थ हो गए मंत्र भी सारे,
बिके हुए झूठों के घर में अब तो सच का दम घुटता है,
इस अवसरवादी दुनिया में सब कुछ बिकता है।
 

रूह भी अपनी देह भी अपना, फिर जाने ये क्यों डरता है,
अपने ही मन को समझाकर, औरों के मन की करता है,
जीवन का यह डर आखिर में, इस सच का कारण बनता है,
इसीलिए
इस अवसरवादी दुनिया में सब कुछ बिकता है।

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