दीप बुझा मत तम गहरा है  ANIL Mishra Prahari

दीप बुझा मत तम गहरा है

ANIL Mishra Prahari

बिछी निशा की काली चादर
मरुथल, सरिता, पर्वत, सागर,
शशि पथ में चलकर भरमाया
लगता अम्बर तम बरसाया।
दिशा-दिशा उसका पहरा है,
दीप बुझा मत तम गहरा है।
 

नभ दीपित अगणित तारों से
धरा व्यथित तम के वारों से,
उषा न जाने क्यों सोयी है
या अनन्त नभ में खोयी है।
अरुण बना बैठा बहरा है,
दीप बुझा मत तम गहरा है।
 

दीपशिखा अब भी जलने दे
थोड़ी याम और ढलने दे,
रात जमी गहरी, घनघोर
रोके कब रुकता है भोर।
तिमिर घना कबतक ठहरा है?
दीप बुझा मत तम गहरा है।

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