शैवालों के बिछे गलीचे !  Premlata tripathi

शैवालों के बिछे गलीचे !

Premlata tripathi

उलझ रही है बोझिल काया,
शैवालों के बिछे गलीचे।
 

विस्फारित नयनों से देखे
फूल रहें है जहाँ नथूने,
मीन तड़पती सुध-बुध खोयी
जाने कितने और नमूने।
कब तक बचती बनी निवाले
गंध उठाती ताल तलैया,
गंदा करती एक मछरिया
एक मंत्र हर बार उलीचे,
शैवालों के बिछे गलीचे।
 

नाते किसके ईमान धरम के
तन को बेचे तन की खाये,
जर्जर होते स्तंभ लाज के
उजडी़ बस्ती कौन बसाये।
धुंआ उडा़ती जली शलाका,
जाग रही है भरी यामिनी
भीगे आँचल नैना भींचे
शैवालों के बिछे गलीचे।
 

जूझ रहा है शैशव बचपन
मौन निहारे मन का रोगी,
निश्छल हैं ये आँसू कितने
सिद्ध करेगा कैसे ढोंगी।
गाँव बसे कब जुटे लुटेरे,
छनी पकी सब धींगा मुश्ती
मुरझ गये खिलने से पहले
कहाँ बहारें भरे बगीचे,
शैवालों के बिछे गलीचे।

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