क्या सच में फर्क नहीं पड़ता?  Shilpi Kumari

क्या सच में फर्क नहीं पड़ता?

Shilpi Kumari

ज़िन्दगी के विशाल महसागर में,
जीवन जीने की अभिलाषाएँ कम हो रही उसमें,
खुशियों की चादर छोड़​,
मुस्कुराहट को तोड़ मरोड़​,
बस अकेले चल रहा इंसान, पकड़ कर टूटे-फूटे रोड़​,
क्यों किसी को फर्क नहीं पड़ता?
 

कोई किसी के लिए क्यूँ नहीं लड़ता,
कोई भी रिश्ता क्यूँ बन गया इतना सस्ता,
क्यों नहीं रख़ना चाहता इंसान-इंसान से वास्ता,
क्यों किसी को फर्क नहीं पड़ता?
 

क्यों कोई किसी को अनमोल नहीं समझता,
क्यों कोई दुख़ में एक हाथ उसके लिए नहीं बढाता,
क्यों कोई किसी को दिखाता नहीं पक्का रास्ता,
क्यों किसी को फर्क नहीं पड़ता?
 

किसी के दुख को अपना समझ कर तो देखो,
किसी की जगह अपने आप को रख कर तो सोचो,
तब जाकर समझ आए इंसान को दिलों का राब्ता​,
तब जाकर फर्क पड़ेगा,
जब​ हर एक इंसान चहचहाएगा,
तब जा कर इस कलयुग में वो भगवान को पाएगा।

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