अस्तित्व की तलाश अंजना कुमारी झा
अस्तित्व की तलाश
अंजना कुमारी झाक्या है मेरा अस्तित्व?
इस सवाल का जवाब ना ढूँढ पाई
और जवाब की तलाश में
अपना आधा जीवन घूम आई।
सोचा सबसे पहले अपना बचपन टटोलती हूँ
जहाँ छोटी सी मुनिया थी पूरे घर की टुनियाँ,
जीती थी शान से, बेफिक्र हो बड़े ही आराम से।
एक दिन खेल-खेल में माँ से पूछा मैनें,
क्यों मुझे पराया धन कहती हो?
तो क्यों सिर्फ भइया को ही घर का रक्षक कहती हो?
माँ ने हँस कर बात टाला
तो ढ़कोसलों का पाठ फिर से पढ़ा डाला,
कहा बेटी तो मेहमान होती है
जिस पर दूसरे परिवार की ज़िम्मेदारी होती है।
वाह माँ वाह
एक ही पल में मेरा अस्तित्व मिटा डाला,
तो पराया धन बोल मुझे जीते जी बचपन में ही मार डाला।
घर से निकले जब कदम एक नई उम्मीद में
कि शायद कहीं कोई और मुझ से मेरी पहचान कराएगा,
तो डूबे मेरे अस्तित्त्व की नइया पार लगाएगा,
पर फिर एक बार मुझे मेरा काम बताया गया
तो फिर नई जिम्मेदारियों से मेरा कन्धा दबाया गया।
औरत है तू, तेरा जन्म दूसरों को अर्पण है,
तो यही तेरा असली दर्पण है।
क्यों इस समाज ने ये नियम बनाए हैं?
तो क्यों मेरे अस्तित्त्व के परखच्चे उड़ाये हैं?
बस कर ढ़कोसलों का खेल यहीं
तो बनाने दे समाज में मुझे भी अपनी जगह नई।