पीढ़ी दर पीढ़ी suman sabhajeet yadav
पीढ़ी दर पीढ़ी
suman sabhajeet yadavवो दिन बड़े सुहाने थे
जब तक थी नन्ही बिटिया मैं,
चहुँ ओर खिलती खिलखिलाती थी
चंचल सी चहकती थी मैं।
हँसती और हँसाती थी
जन-जन को गुदगुदाती थी,
तब समय बड़ा सुहाना था
जब माँ का आँगन मेरा था।
मेरी कली अब सुमन बनी
तुम हो दूसरे आँगन की शोभा,
ऐसा माँ ने बतलाया
हुआ माँ का घर पराया।
एक नया आशियाँ पाया मैंने
अपने संस्कारों से सजाया मैंने,
सीख जो दी थी माँ
जिसकी मैंने गाँठ भरी।
तन-मन-धन समर्पण कर भी
थक कर चूर-चूर मैं हो जाती,
ना जाने क्यों फिर भी माँ
मैं उनको खुश न रख पाती।
कभी रंग, कभी रूप तो कभी कर्मठता
इनसे भरी प्रताड़नाएँ थी,
हद तो तब पार हुई
जब मेरी नन्ही सी जान हुई।
देख उसे विचलित हुई मैं
कई सवालों की बौछार हुई,
कही मेरी यह कविता
बन जाए न उसकी रचना।
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प्रस्तुत कविता "पीढ़ी दर पीढ़ी" में एक बेटी का माता-पिता के आँगन में बिताए खुशी के पलों का इजहार है। परंतु विवाह उपरान्त जीवन में हुए परिवर्तन एवं अनेकानेक समस्याएँ जिसे युगों-युगों से नारी झेलती आ रही है उन्हीं मनोभावों का वर्णन है। वर्तमान परिवेश में आज भी किस प्रकार आत्मनिर्भर महिला होने के बावजूद भी विवाह उपरान्त पीढियों से चली आ रही प्रताड़नाएँ चली आ रही हैं और क्या यह उसी प्रकार चलती रहेंगी ? यह प्रश्न एक महिला एवं माँ होने के नाते मन को बारम्बार विचलित करता है।