काश के फूल  SANTOSH SETH

काश के फूल

SANTOSH SETH

वर्षा ऋतु छोड़ चली अब,
धरती से मुख मोड़ चली अब।
 

शीत ऋतु का स्वागत करने
उतर आए हैं धरा में अब,
बादलों की चादर बिछाने
काश के फूल जमीं में अब।
 

बुड्ढे होते बारिश के दिन पर
हरियाली फसलें लहलहाती,
हरे-भरे घासों के बीच
काश की ये फूलें बलखाती।
 

लंबे-लंबे काश के फूल
खेतों की पगडंडियों में,
उलझी सी लिपटी हुई
पड़े हैं ओस पंखुड़ियों में।
 

बर्फीली फ़ुहारों के जैसे
उतर गई है गगन से काश,
काश के इन झुरमुटों से
नवरात्र का होता एहसास।
 

मख़मली सफेद चादरों में
नहीं कहीं महबूबा आस-पास,
मदमस्त सुहानी वादियों में
बैठे हैं "संतोष" तन्हा उदास।

अपने विचार साझा करें




1
ने पसंद किया
1120
बार देखा गया

पसंद करें

  परिचय

"मातृभाषा", हिंदी भाषा एवं हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार का एक लघु प्रयास है। "फॉर टुमारो ग्रुप ऑफ़ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग" द्वारा पोषित "मातृभाषा" वेबसाइट एक अव्यवसायिक वेबसाइट है। "मातृभाषा" प्रतिभासम्पन्न बाल साहित्यकारों के लिए एक खुला मंच है जहां वो अपनी साहित्यिक प्रतिभा को सुलभता से मुखर कर सकते हैं।

  Contact Us
  Registered Office

47/202 Ballupur Chowk, GMS Road
Dehradun Uttarakhand, India - 248001.

Tel : + (91) - 8881813408
Mail : info[at]maatribhasha[dot]com