काश के फूल SANTOSH SETH
काश के फूल
SANTOSH SETHवर्षा ऋतु छोड़ चली अब,
धरती से मुख मोड़ चली अब।
शीत ऋतु का स्वागत करने
उतर आए हैं धरा में अब,
बादलों की चादर बिछाने
काश के फूल जमीं में अब।
बुड्ढे होते बारिश के दिन पर
हरियाली फसलें लहलहाती,
हरे-भरे घासों के बीच
काश की ये फूलें बलखाती।
लंबे-लंबे काश के फूल
खेतों की पगडंडियों में,
उलझी सी लिपटी हुई
पड़े हैं ओस पंखुड़ियों में।
बर्फीली फ़ुहारों के जैसे
उतर गई है गगन से काश,
काश के इन झुरमुटों से
नवरात्र का होता एहसास।
मख़मली सफेद चादरों में
नहीं कहीं महबूबा आस-पास,
मदमस्त सुहानी वादियों में
बैठे हैं "संतोष" तन्हा उदास।