छलावा rakesh rajgiriyar
छलावा
rakesh rajgiriyarबिहार में बहार है
चुनाव की रफ़्तार है
डर लगता होगा तुम्हे कोरोना की महामारी से
अपने यहाँ तो नेताओं से यारी है।
हवा हो गई सोशल डिस्टन्सिंग
और रफूचक्कर है मास्क,
दर-दर ये भटक रहे, यही है इनका टास्क।
विज़न तो क्लियर है बहार की
कल तक जो कहते थे
आप जहाँ है वही रहिये जरुरत नहीं है आपकी,
पैरो में गिर पड़े और खैरियत पूछ रहे हैं बाप की।
पहले मीटिंग में ही नौकरी बाँट रहे हैं बबुआ
जरुरत के समय पी रहे थे इंद्रप्रस्थ में पऊआ,
भूखे और लाचार
दर-दर की ठोकरे खा रहे थे जब अपने
तब यही सुशाशन चीख-चीख कह रहे थे
भाई कंगाल हैं हम।
जब कंगाल हो तो ये उड़न खटोला कहाँ से आया?
क्या रक्त-रंजित पैरों के छाले तब न दिखे थे?
कोटा में बच्चे अपने आने को तड़प रहे थे।
मजदूरों पर लाठियाँ ऐसे बरस रही थी
मानो विकास की यही झलक थी,
तब सो रहे थे अब क्यों जागे
तुम्हारे इस कुम्भकर्ण से कितने मर गए अभागे।
आज डगर-डगर तुम पैदल चलते हो
क्या हुआ था, क्या हुआ था उस वक़्त
जब तुम हमसे रगर कर रहे थे
तुम गैर थे, गैर ही सही
दिलासा तो न मिलता,
अपनों की आस में कोई प्यासा तो न मिलता,
आज जब वक़्त तुम्हारे पास है
तो हमें भी जिद कम नहीं,
कल तुम घर से न निकले थे
आज हम ही सही।