ठौर-ठिकाने बदल रहा हूँ Kumar Sonal
ठौर-ठिकाने बदल रहा हूँ
Kumar Sonalबेफ़िक्री के देश से यारों!
ठौर-ठिकाने बदल रहा हूँ,
वो मस्ती जिसके साक्षी थे
आसमान और खेत, पहाड़,
निशा, दिवस, औ भोर, दोपहर,
विष्णुपद, फल्गु की कछार।
गाँवों के तालाब, बगीचे,
गया शहर के चौक, चौराहे,
बोधगया की सड़कें, मंदिर,
घूमे जिनपर गाहे-बगाहे।
अब सब को कागज़ के टुकडों
में समेट कर निकल रहा हूँ,
बेफ़िक्री के देश से यारों!
ठौर-ठिकाने बदल रहा हूँ।
अपनी इस किस्मत में शायद
यही फ़साना लिखा था,
हम-महफ़िल और यारों की
यारियाँ कमाना लिखा था,
जिन राहों पर रोज़ चले, उन्हें
छोड़ के आना लिखा था,
आध-दशक के हर्षोल्लास को
स्मृति बन जाना लिखा था।
नियति के इस नव-संघर्ष में
मुश्किल है, पर संभल रहा हूँ,
बेफ़िक्री के देश से यारों!
ठौर-ठिकाने बदल रहा हूँ।
भूलने को तो नहीं है मुमकिन
बेपरवाही के हर पल को,
पर अब शायद है मुश्किल भी
जी पाना फिर से इस कल को।
हम सब अब भी मिलेंगे बेशक!
पर अब वो जलसा ना होगा,
अब अपने फितरत में आवा-
-रापन वो कल सा ना होगा।
इस असमंजस के ख़याल में
डरते-डरते मचल रहा हूँ,
बेफ़िक्री के देश से यारों!
ठौर-ठिकाना बदल रहा हूँ।
कॉलेज की अनगिन स्मृतियाँ
सहसा सामने आ जाती हैं,
दिल की धड़कनें तेज़ करके
इस मन को हर्षा जाती हैं।
सारी मस्ती, सारे मुश्किल,
तैरते हैं आँखों के जल में,
हँसी-ख़ुशी, कुछ दुख के पल, औ'
दोस्त रहें जो बीते कल में।
यूँ तो रोक रखा हूँ ख़ुद को
पर भीतर से पिघल रहा हूँ,
बेफ़िक्री के देश से यारों!
ठौर-ठिकाना बदल रहा हूँ।
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ये कविता मेरे दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया, बिहार में मेरे कॉलेज-जीवन की समाप्ति के पश्चात लिखी गई है। ये कविता बीते पांच अद्भुत वर्षों में अनुभव किए गए हर एक खूबसूरत पल, दुखदायी पल को पिरोते हुए, कमाए गए कुछ यारों की मुहब्बत को नवाज़िश है। मुझे उम्मीद है कि हर वो शख़्स जिसने विद्यार्थी-जीवन व्यतीत किया है, इस कविता से अपने आपको करीब पाएँगे।