ये ज़िन्दगी  Sachin Prakash

ये ज़िन्दगी

Sachin Prakash

अंधेरे में तप रही ज़िन्दगी, भरी धूप में ठहरी ज़िन्दगी,
जिम्मेदारी में दबी ज़िन्दगी, समझदारी में उलझी ज़िन्दगी।
रिश्तों में कहीं फँसी ज़िन्दगी, कर्तव्यों में कहीं बँधी ज़िन्दगी,
बिन पैसों के नहीं ज़िन्दगी, सिर्फ पैसों से नहीं ज़िन्दगी।
 

कभी होठों पर रुकी तो कभी पलकों से बही ज़िन्दगी,
कभी दीवारों में सिमटकर खिड़कियों पे रुकी ज़िन्दगी,
अपनों के बीच में कभी पराई हो रही ज़िन्दगी,
सबके मतलबों के बीच मतलबी हो रही ज़िन्दगी।
 

कभी संपूर्ण तो कभी अधूरी रह गई ज़िन्दगी,
एक ज़िन्दगी को समझने में बीत गई ये ज़िन्दगी,
कर्ण से शुरू और कर्ण में फिर मिल गई ये ज़िन्दगी,
रब से मिली और रब से ही फिर चल रही ज़िन्दगी।

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