बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

जीवन परिचय

इनका जन्म भाद्र कृष्ण षष्ठी, संवत् 1912 को उत्तर प्रदेश के जिला मिर्जापुर के दात्तापुर नामक ग्राम के एक संपन्न ब्राह्मण कुल में हुआ था. इनकी माता ने इन्हें हिंदी अक्षरों का ज्ञान कराया। फारसी की शिक्षा का आरंभ भी घर पर करा दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा के लिए इन्हें गोंडा (अवध)भेजा गया.

इनके पिता पं. गुरुचरणलाल उपाध्याय जी विद्याव्यसनी थे। उन्होंने अंग्रेजी, हिंदी और फारसी के साथ ही साथ संस्कृत की शिक्षा की व्यवस्था की तथा पं. रामानंद पाठक को अभिभावक शिक्षक नियुक्त किया । पाठक जी काव्यमर्मी एवं रसज्ञ थे। इनके साहचर्य से कविता में रुचि हुई । इन्हीं के उत्साह और प्रेरणा से प्रेमघन जी पद्यरचना करने लगे। संपन्नता और यौवन के संधिकाल में प्रेमघन जी का झुकाव संगीत की ओर हुआ और ताल, लय, राग, रागिनी का परिज्ञान हो गया विशेषत: इसलिए कि ये रसिक व्यक्ति थे और रागरंग में अपने को लिप्त कर सके थे। संवत् 1928 में कलकत्ते से अस्वस्थ होकर आए और लंबी बीमारी में फँस गए। इसी बीमारी के दौरान में प्रेमघन जी की पं. इंद्र नारायण सांगलू से मैत्री हुई। सांगलू जी शायरी करते थे और अपने मित्रों को शायरी करने के लिए प्रेरित भी करते। इस संगत से नज़्मों और गजलों की ओर रुचि हुई। उर्दू फारसी का इन्हें गहरा ज्ञान था ही। अस्तु, इन रचनाओं के लिए "अब्र" (तखल्लुस) उपनाम रखकर गजल, नज्म, और शेरों की रचना करने लगे। सांगलू के माध्यम से प्रेमघन जी का भारतेंदु बाबू, हरिश्चंद्रजी से मैत्री का सूत्रपात हुआ। धीरे धीरे यह मैत्री इतनी प्रगाढ़ हुई कि भारतेंदु जी के रंग में प्रेमघन जी पूर्णतया पग गए, यहाँ तक कि रचनाशक्ति, जीवनपद्धति और वेशभूषा से भी भारतेंदु जीवन अपना लिया। भारतेंदु-मंडल के कवियों में प्रेमघन जी का प्रमुख स्थान है .

वि. सं. 1930 में प्रेमघन जी ने "सद्धर्म सभा" तथा 1931 वि. सं. "रसिक समाज" की मीरजापुर में स्थापना की। संवत् 1933 वि. में "कवि-वचन-सुधा" प्रकाशित हुई जिसमें इनकी कृतियों का प्रकाशन होता। उसका स्मरण चौधरी जी की मीरजापुर की कोठी का धूलिधूसरित नृत्यकक्ष आज भी कराता है। अपने प्रकाशनों की सुविधा के लिए इसी कोठी में आनंदकादंबिनी मुद्रणालय खोला गया। संवत् 1938 में "आनंदकादंबिनी" नामक मासिक पत्रिका की प्रथम माला प्रकाशित हुई। संवत् 1949 में नागरी नीरद नामक साप्ताहिक का संपादन और प्रकाशन आरंभ किया। प्रेमघन जी के साथ आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पारिवारिक-सा संबंध था। शुक्ल जी शहर के रमईपट्टी मुहल्ले में रहते थे और लंडन मिशन स्कूल में ड्राइंग मास्टर थे। आनंद कादंबिनी प्रेस में छपाई भी देख लेते थे।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी इनके बारे में बताते हुए लिखते हैं - 16 वर्ष की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते तो समवयस्क हिन्दी-प्रेमियों की एक खासी मंडली मुझे मिल गई। चौधरी साहब से तो अब अच्छी तरह परिचय हो गया था। हम लोग इन्हें एक पुरानी चीज समझा करते थे। इस पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का एक अद्भुत मिश्रण रहता था। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि चौधरी साहब एक खासे हिन्दुस्तानी रईस थे। बसन्त पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर इनके यहां खूब नाच रंग और उत्सव हुआ करते थे। इनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। कन्धों तक बाल लटक रहे है। आप इधर से उधर टहल रहे है। एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिये पीछे-पीछे लगा हुआ है। बात की काट-छांट का क्या कहना है! जो बातें इनके मुंह से निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। इनकी बात-चीत का ढंग इनके लेखों के ढंग से एकदम निराला होता था। नौकरों तक के साथ इनका 'संवाद' सुनने-लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वगैरह गिरा, तो इनके मुंह से यही निकलता कि 'कारे बचा त नाहीं।' इनके प्रश्नों के पहले 'क्यों साहब' अक्सर लगा रहता था।

प्रेमघन जी लोगों को प्राय: बनाया करते थे, इससे इनसे मिलने वाले लोग भी इन्हें बनाने की फिक्र में रहा करते थे। मिर्जापुर में पुरानी परिपाटी के एक बहुत ही प्रतिभाशाली कवि रहते थे, जिनका नाम था- वामनाचार्य गिरि। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कवित्त जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण रह गया था कि चौधरी साहब अपने बमारमदे में कंधों पर बाल छिटकाये खंभे के सहारे खड़े दिखाई पड़े। चट कवित्त पूरा हो गया और वामनजी ने नीचे से वह कवित्त ललकारा, जिसका अंतिम अंश था- 'खम्भा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाते की।

लेखन शैली

प्रेमधन जी आधुनिक हिंदी के आविर्भाव काल में उत्पन्न हुए थे। इनके अनेक समसामयिक थे जिन्होंने हिंदी को हिंदी का रूप देने में संपूर्ण योगदान किया। इनमें प्रमुख प्रतापनारायण मिश्र, पंडित अम्बिकादत्त व्यास, पं. सुधाकर द्विवेदी, पं. गोविन्द नारायण मिश्र, पं. बालकृष्ण भट्ट, ठाकुर जगमोहन सिंह, बाबू राधा कृष्णदास, पं. किशोरीलाल गोस्वामी तथा रामकृष्ण वर्मा थे.

प्रेमघनजी की रचनाओं का क्रमश: तीन खंडों में विभाजन किया जाता है : -

1. प्रबंध काव्य

2. संगीत काव्य

3. स्फुट निबंध।

ये कवि ही नहीं उच्च कोटि के गद्यलेखक और नाटककार भी थे। गद्य में निबंध, आलोचना, नाटक, प्रहसन, लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का बड़ी पटुता से निर्वाह किया है। आपकी गद्य रचनाओं में हास परिहास का पुटपाक होता था। कथोपकथन शैली का आपके "दिल्ली दरबर में मित्रमंडली के यार में देहलवी उर्दू का फारसी शब्दों से संयुक्त चुस्त मुहावरेदार भाषा का अच्छा नमूना है। गद्य में खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग (संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द) आलंकारिक योजना के साथ प्रयुक्त हुआ। प्रेमघन जी की गद्यशैली की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि खड़ी बोली गद्य के वे प्रथम आचार्य थे। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके विस्तृत निरूपण की चाल इन्होने चलाई (रामचंद्र शुक्ल)।

लालित्य लहरी के वन्दना सम्बन्धी दोहों और बृजचंद पंचक में इनकी भक्ति भावना व्यक्त हुई है, तो इनकी श्रृंगारिक कवितायें भी रसिकता संपन्न हैं. इनका मुख्य क्षेत्र जातीयता, समाज दशा और देश प्रेम की अभिव्यक्ति है. देश की दुरावस्था के कारणों और देशोन्नति के उपायों का जितना वर्णन इन्होने किया है, उतना भारतेंदु जी की कविताओं में भी नहीं मिलता. इस सन्दर्भ में नयी से नयी घटना को ये कविता का विषय बना लेते थे. उदाहरण स्वरुप पार्लियामेंट के सदस्य दादाभाई नौरोजी को जब विलायत में 'काला' कहा गया, तब इन्होने इस पर यह क्षोभ पूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त की -

अचरज होत तुमहूँ सम गोरे बाजत कारे;
तासों कारे 'कारे' शब्दहू पर हैं वारे !
कारे कृष्ण, राम, जलधर जल-बरसावन वारे
कारे लागत ताहीं सों कारण कौ प्यारे
याते नीको है तुम 'कारे' जाहू पुकारे,
यहै असीस देत तुमको मिलि हम सब कारे -
सफल होहिं मन के सब ही सकल्प तुम्हारे.

इन्होने कई नाटक लिखे हैं जिनमें "भारत सौभाग्य" 1888 में कांग्रेस महाधिवेशन के अवसर पर खेले जाने के लिए लिखा गया था।

प्रेमघनजी का काव्यक्षेत्र विस्तृत था। ये ब्रजभाषा को कविता की भाषा मानते थ। प्रेमघन ने जिस प्रकार खड़ी बोली का परिमार्जन किया इनके काव्य से स्पष्ट है। "बेसुरी तान" शीर्षक लेख में आपने भारतेंदु की आलोचना करने में भी चूक न की। प्रेमघन कृतियों का संकलन इनके पौत्र दिनेशनारायण उपाध्याय ने किया है जिसका "प्रेमघन सर्वस्व" नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन ने दो भागों में प्रकाशन किया है। प्रेमघन हिंदी साहित्य सम्मेलन के तृतीय कलकत्ता अधिवेशन के सभापति (सं. 1912) मनोनीत हुए थे।

प्रमुख कृतियाँ
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